चकबन्दी के जगरी : गणेश सिंह ’गरीब’
मध्य हिमालयी भू-भाग में स्थित उत्तराखण्ड राज्य के कंकर-कंकर में शंकर का वास माना जाता है। देवभूमि के नाम से प्रसिद्ध इस क्षेत्र की जलवायु सभी जीवधारियों के लिए सुखी, निरोगी, दुःखरहित तथा कल्याण की कामना करने वाली है। विश्व की अध्यात्मिक राजधानी माने जानी वाली यह भूमि परम् पवित्र और कल्याणकारी है। अनादि काल से ही इस भूमि को समय-समय पर अपने तपो बल से अनके ऋषि-मुनियों ने सींचित कर विश्व के समस्त जीव समुदाय के लिए कल्याणकारी बीजों का रोपण किया है। ऋषियों के तपोबल से सींचित परम् पवित्र यह भूमि सदा ही रत्नप्रसूता रही है।
रत्नप्रसूता इस धरती में समय-समय पर अनेक महापुरूषों ने जन्म लेकर मानव समुदाय को जीने की नई राह बतायी है। आमजन के जीवन को सहज, सरल और आनन्ददायक बनाने के लिए इन महापुरूषों ने दिन-रात मेहनत कर नई राह का अन्वेषण किया है। उत्तराखण्ड में चकबन्दी के जगरी : गणेश सिंह ’गरीब’ भी उन महापुरूषों में से एक हैं जिहोंने सन् 1974 से निरन्तर पहाडों में चकबन्दी के लिए ना सिर्फ आवाज बुलन्द की बल्कि चकबन्दी का स्वयं भी एक उदाहरण प्रस्तुत किया है। भले ही गणेश सिंह ’गरीब’ का प्रयास आज सरकार की कमजोर राजनैतिक इच्छा शक्ति के चलते अधूरा सा लग रहा हो परन्तु उत्तराखण्ड में चकबन्दी के इस जगरी ने ना सिर्फ स्वयं का उदाहरण प्रस्तुत किया बल्कि समस्त जनता को जागृत करने के लिए आज भी निरन्तर प्रयासरत हैं। विषम भौगोलिक परिस्थितियां, पहाड़ीनुमा खेत, ढलान वाले बुग्याल, रपटीली राहें और गाड-गधेरों की विरासत वाले उत्तराखण्ड प्रदेश के पहाड़ी भूभाग में कई दशकों से खण्ड-खण्ड में विभाजित होकर काश्तकारों के खेत टुकड़े-टुकड़े होकर आज कई खण्ड़ो में विखर गये हैं। वर्तमान में कई खण्डों में बटें खेती के टुकडों में खेती, बागवानी, उद्यानगी, वानकी तथा कृषि से सम्बन्धित अन्य कार्य करना पशुपालन आदि भी न तो परम्परागत तरीके से सम्भव हो पा रहा है और न ही वैज्ञानिक दृष्टिकोण से लाभ का सौदा बन पा रहा है। ऐसी स्थिति में खेती में आधुनिक तकनीकी का प्रयोग एक सपना जैसे लगता है। इसी विडम्बना के कारण पहाडों में निरन्तर खेत बंजर होते जा रहे हैं तथा अनचाहा पलायन का दंश भी इस पहाड़ी प्रदेश को झेलना पड़ रहा है। पर्वतीय जनो की इसी पीड़ा को महसूस करते हुए तथा उसके समाधान के लिए सन् 1974 में दिल्ली सेवानगर में रेडियो वर्कशॉप चलाने वाले एक युवक के मन में उत्तराखण्ड के पहाड़ों अवस्थित विखरे खेतों को तोक में बदलने की तीव्र इच्छा जाग्रत हुई। दरअसल पलायन और निरन्तर बंजर होते खेतों का दर्द महसूस करते हुए आपने यह बीड़ा उठाया जिसे आज भी आप आगे बढ़ा रहे हैं।
सन् 1974 से आपने देश की राजधानी नई दिल्ली से अपने प्रयास शुरू किये तथा चकबन्दी की बारिकियों को समझने के लिए उत्तर प्रदेश तथा हिमाचल प्रदेश के चकबन्दी कानूनों के साथ-साथ केन्द्र सरकार तथा विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा समय-समय पर किये गये भूमि सुधारों का अध्ययन किया तथा पाया कि यदि पहाडों में पूर्ण चकबन्दी की जाती है तो पहाड़ों में फिर से आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक समृद्धि लौट सकती है। पर्वतीय क्षेत्रों में चकबन्दी को ही आपने अपने जीवन का लक्ष्य बना दिया। आपके प्रथम प्रयास के तहत् आप की पहल पर सन् 1975 मे पहली बार अखिल भारतीय गढ़वाली प्रगतिशील संगठन ने पर्वतीय क्षेत्रों में चकबन्दी किये जाने की मांग रखी। अपने मिशन को सफल बनाने के लिए तथा उत्तराखण्ड में आमजनमानस को चकबन्दी के प्रति जागरूक करने के लिए अपने अभियान छेड़ा और चकबन्दी जागृति के लिए आन्दोलन का स्वरूप दिया। आपके द्वारा शुरू किया गया चकबन्दी आन्दोलन आज पर्वतीय जनमानस के पटल पर अंकित हो चुका है।
जीवन का आरम्भिक काल
चकबन्दी के जगरी गणेश सिंह गरीब का जन्म 1 मार्च सन् 1937 को उत्तराखण्ड राज्य के पौड़ी गढ़वाल जिले के विकासखण्ड कल्जीखाल के अन्तर्गत असवालस्यूं पट्टी के ग्राम सूला में हुआ था। आपके पिताजी का नाम चन्दन सिंह नेगी तथा माता का नाम गंठी देवी था। आपकी प्रारम्भिक शिक्षा गांव में ही सम्पन्न हुई। कक्षा 6 से आठवीं की परीक्षा जूनियर हाई स्कूल मुण्डेश्वर से पास करने के उपरान्त आप अपने बड़े भाई सुखदेव सिंह नेगी के साथ दिल्ली चले गये। उन दिनों सुंखदेव सिंह नेगी एक प्रेस में काम करते थे। बड़े भाई के साथ रहते हुए आपने सन् 1956 में गाजियाबाद से हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की। सन् 1958 में डी.ए.वी. इण्टर कॉलेज देहरादून से इण्टरमीडिएट की परीक्षा पास करने के उपरान्त आप पुनः रोजगार की तलाश में दिल्ली चले आये। यहां पर रह कर आपने एक साल का रेडियो मैकेनिक का कोर्स किया तथा उसके बाद एक निजी कम्पनी में नौकरी कर ली, कुछ समय नौकरी करने के उपरान्त आपने नई दिल्ली की लोदी कॉलोनी के न्यू खन्ना मार्केट में एक रेडियो मैन्युफैक्चरिंग एवं रिपेयरिंग की स्वयं की दुकान शुरू कर दी। सन् 1960 में आप का विवाह श्रीमती सरस्वती देवी से सम्पन्न हुआ। तब से लेकर आज तक आप की जीवनसंगनी आप के हर दुःख-सुख की सहभागनी है। जीवन के कठिनतम सफर में भी श्रीमती सरस्वती देवी ने आप का साया बनकर सदैव आप के साथ खड़ी रही हैं। चकबन्दी को यदि आप मिशन में तब्दील कर पाये हैं तो इसमें श्रीमती सरस्वती देवी बराबर की भागीदार रही हैं। सन् 1961 से 1981 तक आप इसी दुकान को सफलतापूर्वक संचालित करते रहे तथा इसके साथ-साथ समाज में सामाजिक भागीदारी में भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते रहे।
जीवन में टर्निग प्वाइन्ट
अपने जीवन में कर्त्तव्य के प्रति दृढ़ इच्छा शक्ति, निर्भयता, सदाचारिता, त्याग, सच्चाई, निष्ठा, लगन, समदर्शिता और निःस्वार्थ सेवा भाव ही सच्ची सामाजिकता, देश तथा समाज के प्रति सच्ची नागरिकता के लक्षण हैं। यह सभी गुण आप में मौजूद हैं। सन् 1974 में पहाडों में समृद्धि को लेकर जो मिशन आपने शुरू किया दिल्ली में रहते हुए आपने पहाड़ी समाज को जोड़ना शुरू किया तथा पलायन को लेकर चर्चाओं का दौर शुरू हो गया। इन चर्चाओं में आप प्रमुख भूमिका निभा रहे थे। 1975 में सर्वप्रथम दिल्ली में अखिल भारतीय गढ़वाल प्रगतिशील संगठन के तत्वावधान में पर्वतीय क्षेत्रों में चकबन्दी को लेकर एक बैठक का आयोजन किया गया संगठन ने तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार से पर्वतीय क्षेत्रों में चकबन्दी करने की मांग की। चकबन्दी के जगरी गणेश सिंह गरीब ने चकबन्दी को पर्वतीय क्षेत्रों में विकास का मूल मंत्र मानते हुए चकबन्दी को ही जीवन का मिशन बनाया। सन् 1977 में अखिल भारतीय प्रगतिशील संगठन ने उत्तर प्रदेश सरकार से पर्वतीय क्षेत्रों में हिमाचल की तर्ज पर पुनः चकबन्दी की मांग की। संगठन ने चकबन्दी की सम्भावनाओं का पता लगाने के लिए पर्वतीय क्षेत्रों का भ्रमण भी किया तथा चकबन्दी के लिए माहौल तैयार करने के लिए कई गांवों में बैठकों का आयोजन भी किया परन्तु पर्वतीय क्षेत्रों में कोई प्रयोगिक मॉडल न हो पाने के कारण केवल संवाद के माध्यम से क्षेत्रीय किसानों को समझाने में संगठन को सफलता नहीं मिल पायी। क्षेत्र में एक ऐसा मॉडल तैयार करने की आवश्यकता महसूस हो रही थी जिससे की क्षेत्रीय किसानों को चकबन्दी के बारे में समझाया जा सके। ऐसे समय में चिन्तनशील चकबन्दी के जगरी गणेश सिंह गरीब आगे आये और उन्होंने क्षेत्र में चकबन्दी का मॉडल तैयार करने के लिए दिल्ली की सुख-सुविधाओं को त्याग कर वापस अपने गांव आना स्वीकार किया। यह आपके जीवन का टर्निंग प्वाइन्ट था।
आपका चिन्तन भी उच्चकोटी का है अक्टूबर 1978 में आपकी पुस्तक उज्जवल भविष्य और हमारा दायित्व का प्रकाशन हुआ। इस पुस्तक में भारत में गरीबी का स्पष्ट उल्लेख करते हुए गरीब वर्ग का उत्थान कैसे हो? शीर्षक नामक पाठ में आप लिखते हैं- ’’जहां बड़े-बड़े बुद्धिजीवी आज चांद-सितारों पर पहुंचकर उसे आबाद करने और बड़े-बड़े मचों पर लम्बे-चौड़े भाषण देने को लालायित हैं वहां जमीन की उन गलियों में रहने वाले जीर्ण इन्सान के विषय में हमें चिन्तन करने की आवश्यकता भी महसूस नहीं होती, जिनके बल पर हमें बड़े-बड़े पद और विलासिता की प्राप्ति होती है। आज हमें चांद-सितारों की नहीं, बल्कि उन तंग गलियों और ग्रामों में बिलखते इन्सान का सर्वेक्षण करना होगा जिन्हें पेट की ज्वाला को शान्त करने के लिए रोटी, तन ढकने को कपड़ा और सिर छिपाने को मकान की आवश्यकता है।’’
इसी पाठ में आप देश की गरीबी मिटाने का आवाहन करते हुए आगे लिखते हैं- ’’आइए, अपनी और समाज की प्रतिष्ठा के लिए हम स ब संकल्प लें कि, बदलते हुए युवा के साथ समाज के गरीब वर्ग के उत्थान के लिए सच्ची कर्त्तव्य निष्ठा का परिचय देकर समाज की कल्याणकारी समस्याओं के लिए मिलकर कार्य करें’’
इसी पुस्तक में पलायन क्यों और कैसे रोका जाए शीर्षक में आप लिखते हैं - ’’अगर सरकार का वास्तविक ध्येय पिछड़े जनमानस का उत्थान है तो भूमि को ठीक वितरण व्यवस्था करके कृषि सुधार करने व नागरिक सुविधाएं जुटाने का पूर्ण दायित्व हर माध्यम से सरकार पर आता है। अनन्त काल से जिस गरीब वर्ग की उपेक्षा चन्द सम्पन्न परिवार करते रहे हैं आज उन्हें राहत पहुंचाना ही सच्चे अर्थों में प्रजातन्त्र कहा जायेगा।’’
साठ के दशक में आप के अन्दर स्वावलम्बन तथा स्वाभिमान का जो बीजारोपण हुआ था सत्तर के दशक में उसका का प्रस्फुटन होने लगा तथा विचारों प्रवाह निरन्तर होने से आपकी चिन्तनशीलता बढ़ने लगी। गरीबी को देश का अभिशाप मानते हुए आप लिखते हैं - ’’देश की वर्त्तमान स्थिति शासकों के लिए एक चुनौति बनी हुई है। कोरे भाषणों का सहारा त्याग कर कर्त्तव्यनिष्ठा से चिन्तन मनन करके समस्याओं को सुलझाना होगा। तभी देश को बर्बादी और तानाशाही के कगार में जाने से बचाया जा सकता है।’’
आप के मन सन् साठ के दशक से विचारों का जो सैलाब उमड़ रहा था सत्तर के दशक में वह मूहर्त रूप लेने लगा था। पर्वतीय क्षेत्रों की समृद्धि का विचार आपको उद्वेलित करने लगा। विभिन्न विचार गोष्ठियों तथा समाजिक समारोहों में आप दृढ़ता से पर्वतीय क्षेत्रों में चकबंदी की बात उठाने लगे। आप के दृढ़ संकल्प को देखते हुए सन् 1975 में सर्वप्रथम दिल्ली में आयोजित अखिल भारतीय गढ़वाली प्रगतिशील संगठन की बैठक में तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार से पर्वतीय क्षेत्रों में चकबंदी की मांग की गयी। आप के सद् प्रयासों से 1977 में अखिल भारतीय गढ़वाली प्रगतिशील संगठन ने बैठक आयोजित कर पर्वतीय क्षेत्रों में पुनः उत्तर प्रदेश सरकार से चकबंदी करने की मांग की तथा पर्वतीय क्षेत्रों में चकबंदी के लिए माहौल तैयार करने के उद्देश्य से कई गांवों का भ्रमण कर गांवों में बैठकों का आयोजन किया। परन्तु क्षेत्र में कोई चकबंदी का कोई भी मॉडल न होने के कारण चकबंदी मॉडल तैयार करने की आवश्यकता महसूस होने लगी। इसी आवश्यकता को महसूस करते हुए आप गहन मन्थन करने लगे। पर्वतीय क्षेत्रों की समृद्धि, स्वरोजगार तथा स्वावलंबी समाज की अवधारणा आप के मन-मस्तिष्क में पहले ही अंकित हो चुकी थी। चकबंदी को जीवन का उद्देश्य मानते हुए तथा स्वावलंबी समाज की स्थापना के लिए आप 26 जनवरी 1981 को जबकि पूरा राष्ट्र गणतंत्र दिवस मना रहा था तो आप दिल्ली की सुख-सुविधाओं को छोड़कर वापस गांव चले आये। गांव में बहुत प्रयासों तथा कटु अनुभवों के उपरांत आपने 18 नाली बंजर भूमि का चक ’चंदन वाटिका’ के नाम स्थापित किया। भले ही इस चक को तैयार करने के लिए आपको अपने कई उपजाऊ खेतों को छोड़ना पड़ा परन्तु आपने हिम्मत नहीं हारी और क्षेत्र में चकबंदी का मॉडल तैयार करने के लिए बेकार पड़ी बंजर भूमि को भी स्वीकार किया। सन् 1981 में आपने ’चन्दन वाटिका’ के नाम से क्षेत्र में चकबंदी का प्रथम मॉडल तैयार किया।
चकबंदी के लिए प्रयास
भारत की 77 प्रतिशत आबादी गांवो में निवास करती है। कृषि तथा कृषिजन्य रोजगार ही उनकी आजीविका के प्रमुख साधन हैं परन्तु मीलों, फर्लांगों तक बिखरे खेतों में खेती करना ना तो तकनीकी दृष्टि से सही है और ना ही आर्थिक दृष्टि से लाभप्रद।
स्वाभिमान, स्वावलंबन के साथ जीवनयापन करने के लिए स्वरोजगार ही एक प्रभावशाली विकल्प है। यहीं से सम्पन्नता का मार्ग खुल सकता है। स्वयं के उद्यम में मन-मस्तिष्क के अनुरूप कार्य करने की स्वतंत्रता होती है लेकिन कृषि क्षेत्र में उच्च तकनीकी का प्रयोग करने के लिए तथा बेहतर उत्पादन लेने के लिए आवश्यक है कि, खेती का एक चक हो जिस पर मन मुताबिक कृषि कार्य किया जा सके। छोटी जोत होने तथा बिखरे हुए खेतों के कारण पर्वतीय क्षेत्रों में तकनीकी का प्रयोग कर बेहतर उत्पादन लेना एक सपने जैसा है। पर्वतीय क्षेत्रों सरकारी संस्थान हों चाहे गैर सरकारी संस्थान कृषि पर किसानों को कितना ही ज्ञान न बांट लें बिना चकबंदी के कृषि क्षेत्र में सुधार नहीं किया जा सकता है। पर्वतीय क्षेत्रों में चहुंमुखी विकास के लिए भूमि सुधार तथा चकबंदी ही एकमात्र विकल्प है। अपने इसी मूल उद्देश्य को दृष्टिगत रखते हुए आपने सैकड़ों गावों की पदयात्राएं की तथा विचार गोष्ठियों का आयोजन कर चकबंदी के लाभों के बारे में आमजन को समझाया। जनजागृति के लिए जन सम्पर्क किया तथा पोस्टर, बैनर बनवाये, चकबंदी जनजागरण के लिए पर्वतीय क्षेत्रों में घर-घर में पर्चे बंटवाये ताकि आमजन चकबंदी के प्रति जागरूक हो सके। चकबंदी अभियान को आन्दोलन का स्वरूप प्रदान करते हुए आपने विकास खण्ड स्तर, जिला स्तर, राज्य स्तर तथा प्रवासी समाज के बीच चकबंदी सम्मेलनों का आयोजन किया।
भ्रमण
चकबन्दी योजना के अनुप्रयोगों को समझने के लिए आपने पूर्व विकासखण्ड अधिकारी बुद्धिबल्लभ ड्योडी के साथ वर्ष 1992 में 12 दिवसीय हिमाचल प्रदेश का दौरा किया। हिमाचल प्रवास के दौरान आपने शिमला तथा मण्डी जिलों में चकबन्दी योजना का अध्ययन किया।
संगठन
पर्वतीय क्षेत्रों में चकबन्दी आन्दोलन को धार देने के लिए आप के सानिध्य में अनेक संगठनों का गठन किया गया। जिन में मुख्य संगठन निम्नलिखित हैं -
ऽ अखिल भारतीय प्रगतिशील गढ़वाली संगठन (दिल्ली, 1975)
ऽ पर्वतीय विकास संगठन (1984)
ऽ मजदूर कृषक संद्य (1986)
ऽ पर्वतीय विकास चकबन्दी समिति (1988)
ऽ चकबन्दी परामर्श समिति (2000)
ऽ मूल नागरिक किसान मंच (2001)
ऽ गरीब क्रान्ति अभियान (2009)
प्रकाशन
अब तक आप की तीन पुस्तकों का प्रकाशन हो चुका है -
1. पुस्तिका - उज्जवल भविष्य और हमारा दायित्व (1978)
2. स्मारिका - गागर में सागर (1987)
3. पुस्तक - पर्वतीय विकास और चकबन्दी (1990)
जनमत सर्वेक्षण
भूमि सुधार, चकबन्दी, कृषि तथा राज्य गठन जैसे विषयों पर आपने पांच बार (वर्ष 2000,2001,2002,2003 एवं 2007) में जनमत सर्वेक्षण भी करवाया।
चकबन्दी का प्रयोग
सन् 1981 में 18 नाली भूमि पर ’चन्दन वाटिका’ के नाम से आपने स्वयं का चक बनाकर राज्य में सर्वप्रथम चकबन्दी का सफल प्रयोग किया। आप के प्रयासों से 1985 में ग्राम- हुलाकीखाल, विकासखण्ड-खिर्सू, जिला- पौड़ी गढ़वाल में कीर्तिबाग के नाम से चक की स्थापना की गयी। सन् 1988 में आपके प्रयासों से ग्राम-तछवाड़, विकासखण्ड- एकेश्वर, जिला- पौड़ी गढ़वाल में प्रेम विहार चक की स्थापना की गयी।
चकबन्दी के लिए किये गये अन्य प्रयास
उत्तराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्रों में चकबन्दी करने के लिए आपने प्रधानमंत्री, तत्कालीन उत्तर प्रदेश के मुख्यमत्रियों, केन्द्रीय मन्त्रियों, सांसद, विधायकों, योजना आयोग के उच्चाधिकारियों, स्थानीय जन-प्रतिनिधियों, सामाजिक कार्यकताओं, बुद्धिजीवियों, मीडिया के सम्मानित पत्रकारों आदि से निरन्तर सम्पर्क किया तथा समय-समय पर पत्राचार के माध्यम से पर्वतीय क्षेत्रों में चकबन्दी कराये जाने का अनुरोध किया।
चकबन्दी आन्दोलन का प्रभाव
ऽ पर्वतीय क्षेत्रों में चकबन्दी के प्रति आपकी मुखरता को देखते हुए तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार ने 27 सितम्बर 1989 को पर्वतीय क्षेत्रों में चकबन्दी करने का निर्णय लिया।
ऽ सन् 1990 मे चकबन्दी आयुक्त द्वारा पर्वतीय क्षेत्रों में सर्वक्षण दल भेजा।
ऽ सन् 1991 में पौड़ी और अल्मोड़ा में चकबन्दी कार्यालयों की स्थापना की गयी।
ऽ आप के द्वारा प्रेषित पत्रों का संज्ञान लेते हुए 24 मार्च 1993 में तत्कालीन लोकसभा सदस्य मेजर जनरल (अवकाश प्राप्त) भुवन चन्द्र खण्डूरी ने लोकसभा में प्रश्न काल के दौरान पर्वतीय क्षेत्रों में चकबन्दी का मामाला उठाया। ठीक इसी प्रकार 1997 में तत्कालीन राज्यसभा सदस्य मनोहर कान्त ध्यानी ने भी राज्यसभा में पर्वतीय क्षेत्रों में चकबन्दी का प्रश्न उठाया।
ऽ नवसृजित राज्य उत्तराखण्ड में वर्ष 2001 गठित अन्तरिम सरकार ने राज्य में चकबन्दी करने का संकल्प पारित किया। ठीक इसी प्रकार सन् 2002 में राज्य में निर्वाचित प्रथम सरकार ने भी राज्य में चकबन्दी करने का संकल्प लिया तथा तत्कालीन राज्यपाल सुरजीत सिंह बरनाला ने 15 अगस्त 2002 के राज्यपाल के अभिभाषण में पर्वतीय क्षेत्रों में चकबन्दी करने का उल्लेख किया।
ऽ वर्ष 2003 में राज्य सरकार द्वारा डॉ हरक सिंह रावत की अध्यक्षता में चकबन्दी परामर्श समिति का गठन किया गया।
ऽ वर्ष 2004 में स्वैच्छिक चकबन्दी का राग अलापा गया तथा पूरन सिंह डंगवाल की अध्यक्षता में भूमि सुधार परिषद का गठन किया गया।
ऽ वर्ष 2009 में तत्कालीन कृषि मंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत की अध्यक्षता में चकबन्दी परामर्श समिति का गठन किया गया।
ऽ वर्ष 2012 में तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा द्वारा चकबन्दी किये जाने की प्रतिबद्धता को दोहराया।
ऽ वर्ष 2013 में पुनः डॉ हरक सिंह रावत की अध्यक्षता में राज्य में चकबन्दी कराये जाने के लिए मंत्री परिषद की तीन सदस्यीय चकबन्दी परामर्श समिति का गठन किया गया।
ऽ वर्ष 2014 में प्रदेश सरकार द्वारा चकबन्दी (पर्वतीय) निदेशालय का गठन हुआ।
ऽ जनवरी 2015 में तत्कालीन मुख्यमंत्री हरीश रावत ने केदार सिंह रावत की अध्यक्षता पर्वतीय चकबन्दी समिति को गठन किया। इसी वर्ष अक्टूबर माह में पर्वतीय चकबन्दी समिति ने चकबन्दी का प्रारूप तथा ड्राफ्ट तैयार कर सरकार को सौंपा।
ऽ जुलाई 2016 में जोत चकबन्दी एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम - 2016 को विधान सभा में पास किया गया।
ऽ नवम्बर 2017 में तत्कालीन सरकार द्वारा घोषणा की गयी कि, प्रदेश में चकबन्दी की शुरूआत उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ तथा उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत के गांव से की जायेगी।
ऽ मई 2020 में उत्तराखण्ड पर्वतीय जोत चकबन्दी और भूमि व्यवस्था नियमावली - 2020 को मन्त्रीमण्डल द्वारा मन्जूरी प्रदान की गयी।
मनोनयन
निम्नलिखित हैं -
ऽ राज्य सरकार की चकबन्दी परामर्श समिति में नामित सदस्य (2003)
ऽ राज्य सरकार द्वारा गठित भूमि सुधार परिषद का सदस्य (2004)
ऽ राज्य सरकार द्वारा गठित उच्च स्तरीय चकबन्दी समिति में नामित सदस्य(2009)
सम्मान
समय-समय पर विभिन्न संस्थाओं द्वारा आप को सम्मानित किया गया।
भले ही राज्य सरकारों की राजनैतिक इच्छा शक्ति की कमी के कारण तमाम प्रयासों के बाद भी अभी तक पर्वतीय क्षेत्रों में चकबन्दी सम्भव नहीं हो पायी है परन्तु आपके द्वारा प्रदीप्त किया गया चकबन्दी का दीया आज भी समस्त पर्वतीय क्षेत्र को आलौकित कर रहा है। आशा की जानी चाहिए की प्रकाशित होने वाले चकबन्दी के इस दीये से आने वाले समय में सरकार की राजनीतिक इच्छा जाग्रत होगी तथा पर्वतीय क्षेत्रों में चकबन्दी के साथ-साथ समृद्धि लौट आयेगी। 84 वर्ष की आयु पूर्ण करने के उपरान्त आज भी आप पूर्णरूप से स्वस्थ हैं तथा पहाड़ों में समृद्धि के लिए चकबन्दी कराये जाने के लिए निरन्तर प्रयासरत हैं। आपकी सक्रियता तथा निस्वार्थ भाव से की गयी जनसेवा को देखते हुए उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले समय में यह क्षेत्र पुनः आर्थिक समृद्धि की राह का चुनाव करेगा और उत्तराखण्ड फिर से ’एक भारत, श्रेष्ठ भारत’ का सिरमौर साबित होगा।
’
उत्तराखण्ड राज्य का संक्षिप्त परिचय
उत्तराखण्ड, मध्य हिमालय की गोद में बसा भारत का एक पर्वतीय राज्य है, सनातन धर्म, वैदिक संस्कृति का प्रमुख केन्द्र उत्तराखण्ड कई ऐतिहासिक, पौराणिक, धार्मिक तथा आदिकालीन संस्कृति का प्रत्यक्षदर्शी रहा है। सनातन धर्म को आधार प्रदान करने वाले गंगोत्री, यमनोत्री, केदारनाथ, बदरीनाथ सहित आदि अनेक पवित्र तीर्थस्थल यहां पर मौजूद हैं। संतों की नगरी हरिद्वार तथा हिमालयी कुम्भ के नाम से प्रसिद्ध प्रति 12 वर्ष बाद होने वाली नन्दा राजजात जहां इस क्षेत्र को विशिष्ठता प्रदान करते हैं, वहीं योग की राजधानी ऋषिकेश सम्पूर्ण विश्व को अपनी ओर आकर्षित करता है, तो विश्व का प्रथम विश्व विद्यालय होने के गौरव से गौरवान्वित कण्वाश्रम भी इसी पवित्र भूमि पर स्थित है। अध्यात्म का आधार प्रदान करने वाली देवभूमि के नाम से जाने जाने वाली, कंकर-कंकर में शंकर का एहसास कराने वाली यह परम पवित्र भूमि न सिर्फ भारत का भाल है अपितु सदियों से सम्पूर्ण विश्व के आकर्षण का केन्द्र भी रही है। यह भूमि वीरों की भूमि भी है तथा देश की रक्षा के खातिर यहां के अनेक वीर सैनिकों ने समय आने पर अपने प्राणों की आहुति दी है। गंगा-यमुना के मायका के रूप में विश्व प्रसिद्ध उत्तराखण्ड राज्य का निर्माण 9 नवम्बर 2000 को कई वर्षों के आन्दोलन के पश्चात् भारत गणराज्य के सत्ताइसवें राज्य के रूप में किया गया था। 2006 तक यह प्रदेश उत्तरांचल के नाम से जाना जाता था। 1 जनवरी 2007 में स्थानीय लोगों की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए राज्य का आधिकारिक नाम बदलकर उत्तराखण्ड कर दिया गया। राज्य की सीमाएँ उत्तर में तिब्बत और पूर्व में नेपाल से लगी हुई हैं। पश्चिम में हिमाचल प्रदेश और दक्षिण में उत्तर प्रदेश इसकी सीमा से लगे राज्य हैं। सन् 2000 में गठन से पूर्व यह उत्तर प्रदेश का एक भाग था। वेदों सहित अनेक सनातनी संस्कृति के धार्मिक ग्रन्थों की यह भूमि रचनास्थली रही है। पारम्परिक सनातनी ग्रन्थों और प्राचीन साहित्य में इस क्षेत्र का उल्लेख उत्तराखण्ड के रूप में किया गया है। हिन्दी और संस्कृत में उत्तराखण्ड का अर्थ उत्तरी क्षेत्र या भाग होता है। राज्य में सनातन धर्म की पवित्रतम और भारत की सबसे बड़ी नदियों गंगा और यमुना के उद्गम स्थल क्रमशः गंगोत्री और यमुनोत्री तथा इनके तटों पर बसे वैदिक संस्कृति के कई महत्त्वपूर्ण तीर्थस्थान हैं।देहरादून, उत्तराखण्ड की अन्तरिम राजधानी होने के साथ इस राज्य का सबसे बड़ा नगर भी है। गैरसैण को भौगोलिक स्थिति को देखते हुए भविष्य की राजधानी के रूप में प्रस्तावित किया गया है किन्तु विवादों और संसाधनों के अभाव के चलते अभी भी देहरादून अस्थाई राजधानी बना हुआ है। जबकि गैरसैंण को राज्य की ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित किया गया है। राज्य का उच्च न्यायालय नैनीताल में है।राज्य सरकार ने हाल ही में हस्तशिल्प और हथकरघा उद्योगों को बढ़ावा देने के लिये कुछ पहल की हैं। साथ ही बढ़ते पर्यटन व्यापार तथा उच्च तकनीकी वाले उद्योगों को प्रोत्साहन देने के लिए आकर्षक कर योजनायें प्रस्तुत की हैं। राज्य में कुछ विवादास्पद किन्तु वृहत बाँध परियोजनाएँ भी हैं जिनकी पूरे देश में कई बार आलोचनाएँ भी की जाती रही हैं, जिनमें विशेष है भागीरथी-भीलांगना नदियों पर बनने वाली टिहरी बाँध परियोजना। इस परियोजना की कल्पना 1953 मे की गई थी और यह अन्ततः 2007 में बनकर तैयार हुआ। उत्तराखण्ड, की धरती को विश्व प्रसिद्ध चिपको आन्दोलन के जन्मस्थान के नाम से भी जाना जाता है।
स्कन्द पुराण में हिमालय को पाँच भौगोलिक क्षेत्रों में विभक्त किया गया हैः-
खण्डाः पंच हिमालयस्य कथिताः नैपालकूमाँचंलौ। केदारोऽथ जालन्धरोऽथ रूचिर काश्मीर संज्ञोऽन्तिमः॥
अर्थात् हिमालय क्षेत्र में नेपाल, कुर्मांचल (कुमाऊँ), केदारखण्ड (गढ़वाल), जालन्धर (हिमाचल प्रदेश) और सुरम्य कश्मीर पाँच खण्ड है।
पौराणिक ग्रन्थों में कुर्मांचल क्षेत्र मानसखण्ड के नाम से प्रसिद्व था। पौराणिक ग्रन्थों में उत्तरी हिमालय में सिद्ध, गन्धर्व, यक्ष, किन्नर जातियों की सृष्टि और इस सृष्टि का राजा कुबेर बताया गया हैं। कुबेर की राजधानी अलकापुरी (बद्रीनाथ से ऊपर) बतायी जाती है। पुराणों के अनुसार राजा कुबेर के राज्य में आश्रम में ऋषि-मुनि तप व साधना करते थे। अंग्रेज़ इतिहासकारों के अनुसार हूण, शक, नाग, खस आदि जातियाँ भी हिमालय क्षेत्र में निवास करती थी। पौराणिक ग्रन्थों में केदार खण्ड व मानस खण्ड के नाम से इस क्षेत्र का व्यापक उल्लेख है। इस क्षेत्र को देवभूमि व तपोभूमि माना गया है। मानस खण्ड का कुर्मांचल व कुमाऊँ नाम चन्द राजाओं के शासन काल में प्रचलित हुआ। कुर्मांचल पर चन्द राजाओं का शासन कत्यूरियों के बाद प्रारम्भ होकर सन् 1790 तक रहा। सन् 1790 में नेपाल की गोरखा सेना ने कुमाऊँ पर आक्रमण कर कुमाऊँ राज्य को अपने आधीन कर लिया। गोरखाओं का कुमाऊँ पर सन् 1790 से 1815 तक शासन रहा। सन् 1815 में अंग्रेंजो से अन्तिम बार परास्त होने के उपरान्त गोरखा सेना नेपाल वापस चली गयी किन्तु अंग्रेजों ने कुमाऊँ का शासन चन्द राजाओं को न देकर ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अधीन कर दिया। इस प्रकार कुमाऊँ पर अंग्रेजो का शासन 1815 से आरम्भ हुआ।
संयुक्त प्रान्त का भाग उत्तराखण्ड
ऐतिहासिक विवरणों के अनुसार केदार खण्ड कई गढ़ों (किले) में विभक्त था। इन गढ़ों के अलग-अलग राजा थे जिनका अपना-अपना आधिपत्य क्षेत्र था। इतिहासकारों के अनुसार पँवार वंश के राजा ने इन गढ़ों को अपने अधीन कर एकीकृत गढ़वाल राज्य की स्थापना की और श्रीनगर को अपनी राजधानी बनाया। केदार खण्ड का गढ़वाल नाम तभी प्रचलित हुआ। सन् 1803 में नेपाल की गोरखा सेना ने गढ़वाल राज्य पर आक्रमण कर अपने अधीन कर लिया। यह आक्रमण लोकजन में गोर्खाली के नाम से प्रसिद्ध है। महाराजा गढ़वाल ने नेपाल की गोरखा सेना के अधिपत्य से राज्य को मुक्त कराने के लिए अंग्रेजों से सहायता मांगी। अंग्रेज़ सेना ने नेपाल की गोरखा सेना को देहरादून के समीप सन् 1815 में अन्तिम रूप से परास्त कर दिया। किन्तु गढ़वाल के तत्कालीन महाराजा द्वारा युद्ध व्यय की निर्धारित धनराशि का भुगतान करने में असमर्थता व्यक्त करने के कारण अंग्रेजों ने सम्पूर्ण गढ़वाल राज्य राजा गढ़वाल को न सौंप कर अलकनन्दा-मन्दाकिनी के पूर्व का भाग ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासन में सम्मिलित कर गढ़वाल के महाराजा को केवल टिहरी जिले (वर्तमान उत्तरकाशी सहित) का भू-भाग वापस किया। गढ़वाल के तत्कालीन महाराजा सुदर्शन शाह ने 28 दिसम्बर 1815 को टिहरी नाम के स्थान पर जो भागीरथी और भिलंगना नदियों के संगम पर छोटा-सा गाँव था, अपनी राजधानी स्थापित की। कुछ वर्षों के उपरान्त उनके उत्तराधिकारी महाराजा नरेन्द्र शाह ने ओड़ाथली नामक स्थान पर नरेन्द्रनगर नाम से दूसरी राजधानी स्थापित की। सन् 1815 से देहरादून व पौड़ी गढ़वाल (वर्तमान चमोली जिला और रुद्रप्रयाग जिले का अगस्त्यमुनि व ऊखीमठ विकास खण्ड सहित) अंग्रेजों के अधीन व टिहरी गढ़वाल महाराजा टिहरी के अधीन हुआ।
भारतीय गणतन्त्र में टिहरी राज्य का विलय अगस्त 1949 में हुआ और टिहरी को तत्कालीन संयुक्त प्रान्त (उत्तर प्रदेश) का एक जिला घोषित किया गया। १९६२ के भारत-चीन युद्ध की पृष्ठभूमि में सीमान्त क्षेत्रों के विकास की दृष्टि से सन् 1960 में तीन सीमान्त जिले उत्तरकाशी, चमोली व पिथौरागढ़ का गठन किया गया। एक नये राज्य के रूप में उत्तर प्रदेश के पुनर्गठन के फलस्वरुप (उत्तर प्रदेश पुनर्गठन अधिनियम, 2000) उत्तराखण्ड की स्थापना 9 नवम्बर 2000 को हुई।
सन् 1969 तक देहरादून को छोड़कर उत्तराखण्ड के सभी जिले कुमाऊँ मण्डल के अधीन थे। सन् 1969 में गढ़वाल मण्डल की स्थापना की गयी जिसका मुख्यालय पौड़ी बनाया गया। सन् 1975 में देहरादून जिले को जो मेरठ प्रमण्डल में सम्मिलित था, गढ़वाल मण्डल में सम्मिलित कर लिया गया। इससे गढ़वाल मण्डल में जिलों की संख्या पाँच हो गयी। कुमाऊँ मण्डल में नैनीताल, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, तीन जिले सम्मिलित थे। सन् 1994 में उधमसिंह नगर और सन् 1997 में रुद्रप्रयाग, चम्पावत व बागेश्वर जिलों का गठन होने पर उत्तराखण्ड राज्य गठन से पूर्व गढ़वाल और कुमाऊँ मण्डलों में छः-छः जिले सम्मिलित थे। उत्तराखण्ड राज्य में हरिद्वार जनपद के सम्मिलित किये जाने के पश्चात गढ़वाल मण्डल में सात और कुमाऊँ मण्डल में छः जिले सम्मिलित हैं। उत्तराखण्ड का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 28° 43’ उ. से 31°27’ उ. और रेखांश 77°34’ पू से 81°02’ पू के बीच में 53,483 वर्ग किमी है, जिसमें से 43,035 कि.मी.२ पर्वतीय है और 7,448 कि.मी.२ मैदानी है, तथा 34,651 कि.मी.२ भूभाग वनाच्छादित है। राज्य का अधिकांश उत्तरी भाग वृहद्तर हिमालय श्रृंखला का भाग है, जो ऊँची हिमालयी चोटियों और हिमनदियों से ढका हुआ है, जबकि निम्न तलहटियाँ सघन वनों से ढकी हुई हैं जिनका पहले अंग्रेज़ लकड़ी व्यापारियों और स्वतन्त्रता के बाद वन अनुबन्धकों द्वारा दोहन किया गया। हाल ही के वनीकरण के प्रयासों के कारण स्थिति प्रत्यावर्तन करने में सफलता मिली है। हिमालय के विशिष्ठ पारिस्थितिक तन्त्र बड़ी संख्या में पशुओं (जैसे भड़ल, हिम तेंदुआ, तेंदुआ और बाघ), पौंधो और दुर्लभ जड़ी-बूटियों का घर है। भारत की दो सबसे महत्वपूर्ण नदियाँ गंगा और यमुना इसी राज्य में जन्म लेतीं हैं और मैदानी क्षेत्रों तक पहुँचते-२ मार्ग में बहुत से तालाबों, झीलों, हिमनदियों की पिघली बर्फ से जल ग्रहण करती हैं।
उत्तराखण्ड, हिमालय श्रृंखला की दक्षिणी ढलान पर स्थित है और यहाँ मौसम और वनस्पति में ऊँचाई के साथ-२ बहुत परिवर्तन होता है, जहाँ सबसे ऊँचाई पर हिमनद से लेकर निचले स्थानों पर उषोष्णकटिबंधीय वन हैं। सबसे ऊँचे उठे स्थल हिम और पत्थरों से ढके हुए हैं। उनसे नीचे, 5,000 से 3,000 मीटर तक घासभूमि और झाड़ीभूमि है। समशीतोष्ण शंकुधारी वन, पश्चिम हिमालयी उपअल्पाइन शंकुधर वन, वृक्षरेखा से कुछ नीचे उगते हैं। 3,000 से 2,600 मीटर की ऊँचाई पर समशीतोष्ण पश्चिम हिमालयी चौड़ी पत्तियों वाले वन हैं जो 2,600 से 1,500 मीटर की उँचाई पर हैं। 1,500 मीटर से नीचे हिमालयी उपोष्णकटिबंधीय पाइन वन हैं। उचले गंगा के मैदानों में नम पतझड़ी वन हैं और सुखाने वाले तराई-दुआर सवाना और घासभूमि उत्तर प्रदेश से लगती हुई निचली भूमि को ढके हुए है। इसे स्थानीय क्षेत्रों में भाबर के नाम से जाना जाता है। निचली भूमि के अधिकांश भाग को खेती के लिए साफ़ कर दिया गया है।
भारत के निम्नलिखित राष्ट्रीय उद्यान इस राज्य में हैं, जैसे जिम कॉर्बेट राष्ट्रीय उद्यान (भारत का सबसे पुराना राष्ट्रीय उद्यान) रामनगर, नैनीताल जिले में, फूलों की घाटी राष्ट्रीय उद्यान और नंदा देवी राष्ट्रीय उद्यान, चमोली जिले में हैं और दोनो मिलकर यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल हैं, राजाजी राष्ट्रीय अभयारण्य हरिद्वार जिले में और गोविंद पशु विहार और गंगोत्री राष्ट्रीय उद्यान उत्तरकाशी जिले में हैं।
उत्तराखण्ड की नदियाँ
इस प्रदेश की नदियाँ भारतीय संस्कृति में सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं। उत्तराखण्ड अनेक नदियों का उद्गम स्थल है। यहाँ की नदियाँ सिंचाई व जल विद्युत उत्पादन का प्रमुख संसाधन है। इन नदियों के किनारे अनेक धार्मिक व सांस्कृतिक केन्द्र स्थापित हैं। हिन्दुओं की पवित्र नदी गंगा का उद्गम स्थल मुख्य हिमालय की दक्षिणी श्रेणियाँ हैं। गंगा का प्रारम्भ अलकनन्दा व भागीरथी नदियों से होता है। अलकनन्दा की सहायक नदी धौली, विष्णु गंगा तथा मंदाकिनी है। गंगा नदी, भागीरथी के रूप में गौमुख स्थान से 25 कि॰मी॰ लम्बे गंगोत्री हिमनद से निकलती है। भागीरथी व अलकनन्दा देव प्रयाग में संगम करती है जिसके पश्चात वह गंगा के रूप में पहचानी जाती है। यमुना नदी का उद्गम क्षेत्र बन्दरपूँछ के पश्चिमी यमनोत्री हिमनद से है। इस नदी में टोन्स, गिरी व आसन मुख्य सहायक हैं। राम गंगा का उद्गम स्थल तकलाकोट के उत्तर पश्चिम में माकचा चुंग हिमनद में मिल जाती है। सोंग नदी देहरादून के दक्षिण पूर्वी भाग में बहती हुई वीरभद्र के पास गंगा नदी में मिल जाती है। इनके अलावा राज्य में काली, रामगंगा, कोसी, गोमती, टोंस, धौली गंगा, गौरीगंगा, पिंडर नयार (पूर्व) पिंडर नयार (पश्चिम) आदि प्रमुख नदियाँ हैं।
हिमालयी श्रृंखला का उत्तराखण्ड में स्थित शिखर
राज्य के प्रमुख हिमशिखरों में गंगोत्री (6614 मी.), दूनगिरि (7066), बन्दरपूँछ (6315), केदारनाथ (6490), चौखम्बा 7138), कामेट (7756), सतोपन्थ (7075), नीलकण्ठ (5696), नन्दा देवी 7818), गोरी पर्वत (6250), हाथी पर्वत (6727), नंदा घुंघुटी (6309), नन्दा कोट (6861), देव वन (6853), माना (7273), मृगथनी (6855), पंचाचूली (6905), गुनी (6179), यूंगटागट (6945) हैं।
हिमनद
राज्य के प्रमुख हिमनदों में गंगोत्री, यमुनोत्री, पिण्डर, खतलिगं, मिलम, जौलिंकांग, सुन्दर ढूंगा इत्यादि आते हैं।
झीलें
राज्य के प्रमुख तालों व झीलों में गौरीकुण्ड, रूपकुण्ड, नन्दीकुण्ड, डूयोढ़ी ताल, जराल ताल, शहस्त्रा ताल, मासर ताल, नैनीताल, भीमताल, सात ताल, नौकुचिया ताल, सूखा ताल, श्यामला ताल, सुरपा ताल, गरूड़ी ताल, हरीश ताल, लोखम ताल, पार्वती ताल, तड़ाग ताल (कुमाऊँ क्षेत्र) इत्यादि आते हैं।
दर्रे
उत्तराचंल के प्रमुख दर्रों में बरास- 5365 मी., (उत्तरकाशी), माना - 6608 मी.(चमोली), नोती-5300 मी. (चमोली), बोल्छाधुरा- 5353 मी., (पिथौरागड़), कुरंगी-वुरंगी-5564 मी.(पिथौरागड़), लोवेपुरा-5564 मी. (पिथौरागड़), लमप्याधुरा-5553 मी. (पिथौरागढ़), लिपुलेख-5129 मी. (पिथौरागड़), उंटाबुरा, थांगला, ट्रेलपास, मलारीपास, रालमपास, सोग चोग ला पुलिग ला, तुनजुनला, मरहीला, चिरीचुन दर्रा आते हैं।
मौसम
उत्तराखण्ड का मौसम दो भागों में विभाजित किया जा सकता हैः पर्वतीय और कम पर्वतीय या समतलीय। उत्तर और उत्तरपूर्व में मौसम हिमालयी उच्च भूमियों का प्रतीकात्मक है, जहाँ पर मॉनसून का वर्ष पर बहुत प्रभाव है। राज्य में वार्षिक औसत वर्षा के आंकड़ों के अनुसार 1200-1650 मि.मी तक होती है, इसमें वर्ष दर वर्ष परिवर्तन सम्भव है। अधिकतम तापमान पंतनगर में ४०.२ डिग्री से. एवं न्यूनतम तापमान -५.४ डिग्री से. मुक्तेश्वर में अंकित है।
हिन्दी एवं संस्कृत उत्तराखंड की राजभाषाऐं हैं। इसके अतिरिक्त उत्तराखंड में बोलचाल की प्रमुख भाषाऐं गढ़वाली, कुमाँऊनी हैं।
सरकार और राजनीति
उत्तराखण्ड सरकार में वर्तमान राज्यपाल बेबी रानी मौर्य एवं मुख्यमन्त्री तीरथ सिंह रावत हैं। वर्तमान समय में उत्तराखंड में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है।
मुख्यमन्त्री
राज्य की स्थापना से अब तक यहाँ दस मुख्यमन्त्री हुए हैं- नित्यानन्द स्वामी, भगत सिंह कोश्यारी, नारायण दत्त तिवारी, मेजर जनरल भुवन चन्द्र खण्डूरी, रमेश पोखरियाल निशंक, भुवन चन्द्र खण्डूरी (एक कार्यकाल में दूसरी बार), विजय बहुगुणा, हरीश रावत, त्रिवेंद्र सिंह रावत, तीरथ सिंह रावत(वर्त्तमान)
राज्यपाल
राज्य स्थापना से लेकर अब तक यहाँ पांच राज्यपाल हुए हैः
सुरजीत सिंह बरनाला, सुदर्शन अग्रवाल, बी॰ एल॰ जोशी, मार्गरेट अल्वा, अजीज कुरेशी, कृष्ण कांत पॉल, बेबी रानी मौय (वर्त्तमान)र्
उत्तराखण्ड के मण्डल तथा जिले
उत्तराखण्ड में 13 जिले हैं जो तीन मण्डलों में समाहित हैं : कुमाऊँ मण्डल, गढ़वाल मण्डल और गैरसैंण मण्डल (प्रस्तावित)
कुमाऊँ मण्डल के चार जिले है -
उधम सिंह नगर, चम्पावत, नैनीताल, पिथौरागढ़
गढ़वाल मण्डल के पाँच जिले हैं -
उत्तरकाशी, टिहरी गढ़वाल, देहरादून, पौड़ी गढ़वाल, हरिद्वार
गैरसैंण मण्डल के चार जिले हैं (प्रस्तावित) -
अल्मोड़ा, चमोली, बागेश्वर, रुद्रप्रयाग
जनसंख्या वृद्धि
2011 की जनगणना के अनुसार, उत्तराखण्ड की जनसंख्या 1,0086,292 है। मैदानी क्षेत्रों के जिले पर्वतीय जिलों की अपेक्षा अधिक जनसंख्या घनत्व वाले हैं। राज्य के मात्र चार सर्वाधिक जनसंख्या वाले जिलों में राज्य की आधे से अधिक जनसंख्या निवास करती हैं। जिलों में जनसंख्या का आकार 2 लाख से लेकर अधिकतम 14 लाख तक है। राज्य की दशकवार वृद्धि दर 19,2 प्रतिशत रही। उत्तराखण्ड के मूल निवासियों को कुमाऊँनी या गढ़वाली कहा जाता है जो प्रदेश के दो मण्डलों कुमाऊँ और गढ़वाल में रहते हैं। एक अन्य श्रेणी हैं गुज्जर, जो एक प्रकार के चरवाहे हैं और दक्षिण-पश्चिमी तराई क्षेत्र में रहते हैं। मध्य पहाड़ी की दो बोलियाँ कुमाऊँनी और गढ़वाली, क्रमशः कुमाऊँ और गढ़वाल में बोली जाती हैं। जौनसारी और भोटिया दो अन्य बोलियाँ, जनजाति समुदायों द्वारा क्रमशः पश्चिम और उत्तर में बोली जाती हैं। लेकिन हिन्दी पूरे प्रदेश में बोली और समझी जाती है और नगरीय जनसंख्या अधिकतर हिन्दी ही बोलती है।
उत्तराखण्ड में धार्मिक समूह
धार्मिक समूह प्रतिशत
हिन्दू 85.00 प्रतिशत
मुसलमान 11.92 प्रतिशत
सिख 2.49 प्रतिशत
ईसाई 0.32 प्रतिशत
बौद्ध 0.15 प्रतिशत
जैन 0.11 प्रतिशत
अन्य 0.01 प्रतिशत
लिंगानुपात प्रति 1000 पुरुषों पर 964 और साक्षरता दर 78.8 है। राज्य के बड़े नगर हैं देहरादून (5,69,578), हरिद्वार (2,28,632), हल्द्वानी (2,32,095), रुड़की (1,18,200) और रुद्रपुर (1,40,857), कोटद्वार(1,75,232), ऋषिकेश(70,499), काशीपुर(1,21,623)। राज्य सरकार द्वारा 15,620 ग्रामों और 81 नगरीय क्षेत्रों की पहचान की गई है।
कुमाऊँ और गढ़वाल के इतिहासकारों का कहना है की आरम्भ में यहाँ केवल तीन जातियाँ थी राजपूत(क्षत्रिय), ब्राह्मण और शिल्पकार। राजपूतों का मुख्य व्यवसाय ज़मीदारी और कानून-व्यस्था बनाए रखना था। ब्राह्मणों का मुख्य व्यवसाय था मन्दिरों और धार्मिक अवसरों पर धार्मिक अनुष्ठानों को कराना। शिल्पकार मुख्यतः क्षत्रियों के लिए काम किया करते थे और हस्तशिल्प में दक्ष थे।
राज्य के प्रमुख नगरों की जनसंख्या
1 देहरादून देहरादून जिला 5,69,578 12 नैनीताल नैनीताल जिला 41,377
2 हरिद्वार हरिद्वार जिला 2,28,632 13 अल्मोड़ा अल्मोड़ा जिला 34,122
3 हल्द्वानी नैनीताल जिला 2,32,095 14 कोटद्वार पौड़ी जिला 1,75,232
4 रुद्रपुर उधमसिंहनगर जिला 1,40,857 15 मसूरी देहरादून जिला 30118
5 काशीपुर उधमसिंहनगर जिला 1,21,623 16 पौड़ी पौड़ी जिला 25,440
6 रुड़की हरिद्वार जिला 1,18,200 17 गोपेश्वर चमोली जिला 21,447
7 ऋषिकेश देहरादून जिला 70,499 18 श्रीनगर पौड़ी जिला 20,115
8 रामनगर नैनीताल जिला 97,916 19 रानीखेत अल्मोड़ा जिला 19,049
9 पिथौरागढ़ पिथौरागढ़ जिला 56,044 20 खटीमा उधमसिंहनगर जिला 15,093
10 जसपुर उधमसिंहनगर जिला 29,400 21 जोशीमठ चमोली जिला 16,709
11 किच्छा उधमसिंहनगर जिला 41,965 22 बागेश्वर बागेश्वर जिला 9,079
अर्थव्यवस्था
उत्तराखण्ड का सकल घरेलू उत्पाद वर्ष 2019-20 के लिए वर्तमान मूल्यों के आधार पर अनुमानित 203.40 लाख करोड़ रूपये था। राज्य की प्रति व्यक्ति आय 2,02,695 (वर्ष 2019-20) रूपये है। वित्तीय वर्ष 2019-20 में उत्तराखण्ड की विकास दर 4.3 प्रतिशत रही। चालू वित्तीय वर्ष 2020-21 के नवीनतम अनुमानों के आधार पर राष्ट्रीय स्तर पर ऋणत्मक आर्थिक विकास दर -7.7 रहने का अनुमान है। उत्तराखण्ड की अर्थव्यवस्था कृषि, पशुपालन, बागवानी, वन, खनन, विनिर्माण, निर्माण, व्यापार, होटल व रेस्टोरेन्ट, पर्यटन तथा अन्य सेवा क्षेत्रों पर निर्भर है। अर्थव्यवस्था में कृषि का योगदान घटना जरूर चिन्ता का विषय है। वर्ष 2011-12 से तुलना करने पर यह भी सामने आया कि प्रदेश में कृषि क्षेत्र का सकल घरेलू उत्पाद या प्रदेश की अर्थव्यवस्था में योगदान करीब 14 प्रतिशत था। वर्ष 2019-20 में यह घटकर करीब 10 प्रतिशत रह गया। प्रदेश में करीब 70 प्रतिशत आबादी गांवों में निवास करती है और प्रदेश की आय का एक बड़ा स्रोत खनन भी इसी क्षेत्र में शामिल है।
उत्तराखण्ड में चूना पत्थर, राक फास्फेट, डोलोमाइट, मैग्नेसाइट, तांबा, ग्रेफाइट, जिप्सम आदि के भण्डार हैं। राज्य में 41,216 लघु औद्योगिक इकाइयां स्थापित हैं, जिनमें लगभग 305.58 करोड़ की परिसम्पत्ति का निवेश हुआ है और 63,599 लोगों को रोजगार प्राप्त है। इसके अतिरिक्त 191 भारी उद्योग स्थापित हैं, जिनमें 2,694.66 करोड़ रुपयों का निवेश हुआ
राज्य की अर्थ-व्यवस्था मुख्यतः कृषि और संबंधित उद्योगों पर आधारित है। उत्तराखण्ड की लगभग 70 प्रतिशत जनसंख्या कृषि पर निर्भर है। राज्य में कुल खेती योग्य क्षेत्र 7,84,177 हेक्टेयर (7,841 वर्गकिमी) है। इसके अलावा राज्य में बहती नदियों के बाहुल्य के कारण पनविद्युत परियोजनाओं का भी अच्छा योगदान है। राज्य में बहुत सी पनविद्युत परियोजनाएं हैं जिनक राज्य के लगभग कुल 5,91,418 हेक्टेयर कृषि भूमि में सिंचाई में भी योगदान है। राज्य में पनबिजली उत्पादन की भरपूर क्षमता है। यमुना, भागीरथी, भीलांगना, अलकनन्दा, मन्दाकिनी, सरयू, गौरी, कोसी और काली नदियों पर अनेक पनबिजली संयन्त्र लगे हुए हैं, जिनसे बिजली का उत्पादन हो रहा है। राज्य के 15,667 गाँवों में से 14,447 (लगभग 92.22 प्रतिशत) गाँवों में बिजली है। इसके अलावा उद्योग का एक बड़ा भाग वन सम्पदा पर आधारित हैं। राज्य में कुल 54,047 हस्तशिल्प उद्योग क्रियाशील हैं।
परिवहन
उत्तराखण्ड रेल, वायु और सड़क मार्गों से अच्छे से जुड़ा हुआ है। उत्तराखण्ड में पक्की सडकों की कुल लंबाई 21,490 किलोमीटर है। लोक निर्माण विभाग द्वारा निर्मित सड़कों की लंबाई 17,772 कि॰मी॰ और स्थानीय निकायों द्वारा बनाई गई सड़कों की लंबाई 3,925 कि॰मी॰ हैं।
जौली ग्रांट (देहरादून) और पंतनगर (ऊधमसिंह नगर) में हवाई पट्टियां हैं। नैनी-सैनी (पिथौरागढ़), गौचर (चमोली) और चिनयालिसौर (उत्तरकाशी) में हवाई पट्टियों को बनाने का कार्य निर्माणाधीन है। ’रूद्र प्रयाग’ से ’केदारनाथ’ तक तीर्थ यात्रियों के लिए हेलीकॉप्टर की सेवा भी आरम्भ हो चुकी है।
हवाई अड्डे
जॉलीग्रांट हवाई अड्डा (देहरादून)ः जॉलीग्रांट हवाई अड्डा, देहरादून हवाई अड्डे के नाम से भी जाना जाता है। यह देहरादून से 25 किमी की दूरी पर पूर्वी दिशा में हिमालय की तलहटियों में बसा हुआ है। बड़े विमानों को उतारने के लिए इसका हाल ही में विस्तार किया गया है। पहले यहाँ केवल छोटे विमान ही उतर सकते थे लेकिन अब एयरबस ए320 और बोइंग 737 भी यहाँ उतर सकते हैं।
चकराता वायुसेना तलः चकराता वायुसेना तल चकराता में स्थित है, जो देहरादून जिले का एक छावनी कस्बा है। यह टोंस और यमुना नदियों के मध्य, समुद्र तल से 1,650 से 1,950 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है।
पंतनगर विमान क्षेत्र (पंतनगर, नैनीताल)
उत्तरकाशी, गोचर (चमोली), अगस्त्यमुनि (हेलिपेड) (रुद्रप्रयाग), नैनी सैनी हवाई अड्डा (पिथौरागढ़)
रेलवे स्टेशन
देहरादूनः देहरादून का रेलवे स्टेशन, घण्टाघर/नगर केन्द्र से लगभग 3 किमी कि दूरी पर है। इस स्टेशन का निर्माण 1897 में किया गया था।
हरिद्वार जंक्शन, हल्द्वानी-काठगोदाम रेलवे स्टेशन, रुड़की, रामनगर, कोटद्वार रेलवे स्टेशन, ऊधमसिंह नगर
बस अड्डे
राज्य के प्रमुख बस अड्डे हैंः
देहरादून, हरिद्वार, हल्द्वानी, रुड़की, रामनगर, कोटद्वार
पर्यटन
उत्तराखण्ड में पर्यटन और तीर्थाटन
चार धाम
ऽ गंगोत्री ऽ यमुनोत्री ऽ केदारनाथ ऽ बदरीनाथ
साहसिक और धार्मिक पर्यटन उत्तराखण्ड की अर्थव्यस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, जैसे जिम कॉर्बेट राष्ट्रीय उद्यान और बाघ संरक्षण-क्षेत्र और नैनीताल, अल्मोड़ा, कसौनी, भीमताल, रानीखेत और मसूरी जैसे निकट के पहाड़ी पर्यटन स्थल जो भारत के सर्वाधिक पधारे जाने वाले पर्यटन स्थलों में हैं। पर्वतारोहियों के लिए राज्य में कई चोटियाँ हैं, जिनमें से नंदा देवी, सबसे ऊँची चोटी है और 1982 से अबाध्य है। अन्य राष्टीय आश्चर्य हैं फूलों की घाटी, जो नंदा देवी के साथ मिलकर यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल है।
उत्तराखण्ड में, जिसे “देवभूमि“ भी कहा जाता है, सनातनी संस्कृति के यहां पवित्रतम तीर्थ स्थान है और हज़ार वर्षों से भी अधिक समय से तीर्थयात्री मोक्ष और पाप शुद्धिकरण की खोज में यहाँ आ रहे हैं। गंगोत्री और यमुनोत्री, जो क्रमशः गंगा और यमुना नदियों के उद्गम स्थल हैं, केदारनाथ (भगवान शिव को समर्पित) और बद्रीनाथ (भगवान विष्णु को समर्पित) के साथ मिलकर उत्तराखण्ड में चार धाम बनाते हैं, जो हिन्दू धर्म के पवित्रतम परिपथ में से एक है। पवित्र तीर्थ स्थल ऋषिकेश को व्यापक रूप से विश्व की योग राजधानी माना जाता है।
हरिद्वार में प्रति बारह वर्षों में कुम्भ मेले का आयोजन किया जाता है जिसमें देश-विदेश से आए करोड़ो श्रद्धालू भाग लेते हैं। राज्य में मंदिरों और तीर्थस्थानों की बहुतायत है, जो स्थानीय देवताओं या शिवजी या दुर्गाजी के अवतारों को समर्पित हैं और जिनका सन्दर्भ हिन्दू धर्मग्रन्थों और गाथाओं में मिलता है। इन मन्दिरों का वास्तुशिल्प स्थानीय प्रतीकात्मक है और शेष भारत से थोड़ा भिन्न है। जागेश्वर में स्थित प्राचीन मन्दिर (देवदार वृक्षों से घिरा हुआ 125 मन्दिरों का प्राणंग) एतिहासिक रूप से अपनी वास्तुशिल्प विशिष्टता के कारण सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं। तथापि, उत्तराखण्ड केवल हिन्दुओं के लिए ही तीर्थाटन स्थल नहीं है। हिमालय की गोद में स्थित हेमकुण्ड साहिब, सिखों का तीर्थ स्थल है। मिंद्रोलिंग मठ और उसके बौद्ध स्तूप से यहाँ तिब्बती बौद्ध धर्म की भी उपस्थिति है।
पर्यटन स्थल
उत्तराखण्ड में बहुत से पर्यटन स्थल है जहाँ पर भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया से पर्यटक आते हैं, जैसे नैनीताल और मसूरी। राज्य के प्रमुख पर्यटन स्थल हैंः
केदारनाथ, नैनीताल, गंगोत्री, यमुनोत्री, बदरीनाथ, अल्मोड़ा, ऋषिकेश, हेमकुण्ड साहिब, नानकमत्ता, फूलों की घाटी, मसूरी, देहरादून, हरिद्वार, औली, चकराता, रानीखेत, बागेश्वर, भीमताल,कौसानी, लैंसडाउन
उत्तराखण्ड में शिक्षा
उत्तराखण्ड के शैक्षणिक संस्थान भारत और विश्वभर में एक महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। ये एशिया के सबसे कुछ सबसे पुराने अभियान्त्रिकी संस्थानों का गृहस्थान रहा है, जैसे रुड़की का भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (पूर्व रुड़की विश्वविद्यालय) और पन्तनगर का गोविन्द बल्लभ पंत कृषि एवँ प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय। इनके अलावा विशेष महत्व के अन्य संस्थानों में, देहरादून स्थित भारतीय सैन्य अकादमी, इक्फ़ाई विश्वविद्यालय, भारतीय वानिकी संस्थान; पौड़ी स्थित गोविन्द बल्लभ पन्त अभियान्त्रिकी महाविद्यालय और द्वाराहाट स्थित कुमाऊँ अभियान्त्रिकी महाविद्यालय भी हैं।
इन सार्वजनिक संस्थानों के अलावा उत्तराखण्ड में बहुत से निजी संस्थान भी हैं, जैसे ग्राफ़िक एरा संस्थान, देहरादून प्रौद्योगिकी संस्थान, भारतीय एयर हॉस्टेस अकादमी इत्यादि।
उत्तराखण्ड बहुत से जाने-माने दिनी और बोर्डिंग विद्यालयों का घर भी है जैसे दून विद्यालय (देहरादून) सेण्ट जोसफ़ कॉलेज, (नैनीताल), वेल्हम गर्ल्स स्कूल (देहरादून), वेलहम ब्यॉज स्कूल (देहरादून), सेण्ट थॉमस कॉलेज (देहरादून), सेण्ट जोसफ़ अकादमी (देहरादून), वुडस्टॉक स्कूल (मसूरी), बिरला विद्या निकेतन (नैनीताल), भोवाली के निकट सैनिक स्कूल घोड़ाखाल, राष्ट्रीय भारतीय सैन्य महाविद्यालय (देहरादून), द एशियन स्कूल (देहरादून), द हेरिटैज स्कूल (देहरादून), जी डी बिरला मैमोरियल स्कूल (रानीखेत), सेलाकुइ वर्ल्ड स्कूल (देहरादून), वेदारम्भ मॉण्टेसरी स्कूल (देहरादून) और शेरवुड कॉलेज (नैनीताल)। बहुत से विदुषकों ने इन विद्यालयों से शिक्षा ग्रहण की जिनमें बहुत से भूतपूर्व प्रधानमन्त्री और अभिनेता इत्यादि भी हैं।
हाल ही के वर्षों में बहुत से निजी संस्थान भी यहाँ खुले हैं जिनके कारण उत्तराखण्ड तकनीकी, प्रबन्धन और अध्यापन-शिक्षा के एक प्रमुख केन्द्र के रूप में उभरा है। कुछ उल्लेखनीय संस्थान हैं देहरादून प्रौद्योगिकी संस्थान (देहरादून), अम्रपाली अभियांत्रिकी एवँ प्रौद्योगिकी संस्थान (हल्द्वानी), सरस्वती प्रबन्धन एवँ प्रौद्योगिकी संस्थान (रुद्रपुर) और पाल प्रबन्धन एवँ प्रौद्योगिकी संस्थान (हल्द्वानी)।
एतिहासिक रूप से यह माना जाता है की उत्तराखण्ड वह भूमि है जहाँ पर शास्त्रों और वेदों की रचना की गई थी और महाकाव्य, महाभारत लिखा गया था।
विश्वविद्यालय
क्षेत्रीय भावनाओं को ध्यान में रखते हुए जो बाद में उत्तराखण्ड राज्य के रूप में परिणित हुआ, गढ़वाल और कुमाऊँ विश्वविद्यालय 1973 में स्थापित किए गए थे। उत्तराखण्ड के सर्वाधिक प्रसिद्ध विश्वविद्यालय हैंः
नाम प्रकार स्थिति
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान रुड़की केन्द्रीय विश्वविद्यालय रुड़की
अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान 2012 से केन्द्रीय विश्वविद्यालय ऋषिकेश
भारतीय प्रबन्धन संस्थान 2012 से केन्द्रीय विश्वविद्यालय काशीपुर
गोविन्द बल्लभ पन्त कृषि एवँ प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय राज्य विश्वविद्यालय पंतनगर
हेमवती नन्दन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय केन्द्रीय विश्वविद्यालय श्रीनगर व पौड़ी
कुमाऊँ विश्वविद्यालय राज्य विश्वविद्यालय नैनीताल और अल्मोड़ा
उत्तराखण्ड प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय राज्य विश्वविद्यालय देहरादून
दून विश्वविद्यालय राज्य विश्वविद्यालय देहरादून
पेट्रोलियम और ऊर्जा शिक्षा विश्वविद्यालय निजी विश्वविद्यालय देहरादून
हिमगिरि नभ विश्वविद्यालय निजि विश्वविद्यालय देहरादून
भारतीय चार्टर्ड वित्तीय विश्लेषक संस्थान (आइसीएफ़एआइ) निजी विश्वविद्यालय देहरादून
भारतीय वानिकी संस्थान डीम्ड विश्वविद्यालय देहरादून
हिमालयन इंस्टीट्यूट ऑफ़ हॉस्पिटल ट्रस्ट डीम्ड विश्वविद्यालय देहरादून
ग्राफ़िक एरा विश्वविद्यालय डीम्ड विश्वविद्यालय देहरादून
गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय डीम्ड विश्वविद्यालय हरिद्वार
पतंजलि योगपीठ विश्वविद्यालय निजी विश्वविद्यालय हरिद्वार
देव संस्कृति विश्वविद्यालय निजी विश्वविद्यालय हरिद्वार
उत्तराखण्ड मुक्त विश्वविद्यालय राज्य विश्वविद्यालय हल्द्वानी
संस्कृति
उत्तराखण्ड की संस्कृति, उत्तराखण्ड का साहित्य, और उत्तराखण्ड का स्थापत्य
रहन-सहन
उत्तराखण्ड एक पहाड़ी प्रदेश है। यहाँ ठण्ड बहुत होती है इसलिए यहाँ लोगों के मकान पक्के होते हैं। दीवारें पत्थरों की होती है। पुराने घरों के ऊपर से पत्थर बिछाए जाते हैं। वर्तमान में लोग सीमेण्ट का उपयोग करने लग गए है। अधिकतर घरों में रात को रोटी तथा दिन में भात (चावल) खाने का प्रचलन है। लगभग हर महीने कोई न कोई त्योहार मनाया जाता है। त्योहार के बहाने अधिकतर घरों में समय-समय पर पकवान बनते हैं। स्थानीय स्तर पर उगाई जाने वाली गहत, रैंस, भट्ट आदि दालों का प्रयोग होता है। प्राचीन समय में मण्डुवा व झुंगोरा स्थानीय मोटा अनाज होता था। अब इनका उत्पादन बहुत कम होता है। अब लोग बाजार से गेहूं व चावल खरीदते हैं। कृषि के साथ पशुपालन लगभग सभी घरों में होता है। घर में उत्पादित अनाज कुछ ही महीनों के लिए पर्याप्त होता है। कस्बों के समीप के लोग दूध का व्यवसाय भी करते हैं। पहाड़ के लोग बहुत परिश्रमी होते है। पहाड़ों को काट-काटकर सीढ़ीदार खेत बनाने का काम इनके परिश्रम को प्रदर्शित भी करता है। पहाड़ में अधिकतर श्रमिक भी पढ़े-लिखे है, चाहे कम ही पढ़े हों। इस कारण इस राज्य की साक्षरता दर भी राष्ट्रीय औसत से कहीं अधिक है।
त्यौहार
शेष भारत के समान ही उत्तराखण्ड में पूरे वर्षभर उत्सव मनाए जाते हैं। भारत के प्रमुख उत्सवों जैसे दीपावली, होली, दशहरा इत्यादि के अतिरिक्त यहाँ के कुछ स्थानीय त्योहार हैं -
देवीधुरा मेला (देवीधुरा, चम्पावत), पूर्णागिरी मेला (टनकपुर, चम्पावत), नन्दा देवी मेला (चमोली,अल्मोड़ा), गौचर मेला (गौचर, चमोली) वैशाखी (उत्तरकाशी), माघ मेला (उत्तरकाशी), उत्तरायणी मेला (बागेश्वर), विशु मेला (जौनसार बावर), हरेला (कुमाऊँ), गंगा दशहरा इसके अलावा भी अनेक स्थानों पर कई क्षेत्रीय और स्थानीय मेलों (जैसे बैशाखी मेला,गेंद मेला डाडामण्डी सहित पौड़ी जिले के अनेक स्थानों पर आयोजित किया जाता है) का आयोजन किया जाता है।
नन्दा देवी राजजात यात्रा जो लगभग हर बारहवें वर्ष में होती है
खानपान
उत्तराखण्डी खानपान का अर्थ राज्य के दोनों मण्डलों, कुमाऊँ और गढ़वाल, के खानपान से है। पारम्परिक उत्तराखण्डी खानपान बहुत पौष्टिक और बनाने में सरल होता है। प्रयुक्त होने वाली सामग्री सुगमता से किसी भी स्थानीय किराना दुकान में मिल जाती है।
यहाँ के कुछ विशिष्ट खानपान है -
आलू टमाटर का झोल, मूली का झोल, चैंसू, फाणू,, झोई, कफिलू(धबड़ी), मंण्डुए की रोटी, पींडालू की सब्जी, बथुए का पराँठा, बाल मिठाई, सिंगौरी,, कंडाली का साग, गहत की दाल,
वेशभूषा
पारम्परिक रूप से उत्तराखण्ड की महिलायें घाघरा तथा आँगड़ी, तथा पुरूष चूड़ीदार पजामा व कुर्ता पहनते थे। अब इनका स्थान पेटीकोट, ब्लाउज व साड़ी ने ले लिया है। जाड़ों (सर्दियों) में ऊनी कपड़ों का उपयोग होता है। विवाह आदि शुभ कार्यो के अवसर पर कई क्षेत्रों में अभी भी सनील का घाघरा पहनने की परम्परा है। गले में गलोबन्द, र्चयो, जै माला, नाक में नथ, कानों में कर्णफूल, कुण्डल पहनने की परम्परा है। सिर में शीशफूल, हाथों में सोने या चाँदी के पौंजी तथा पैरों में बिछुए, पायजेब, पौंटा पहने जाते हैं। घर परिवार के समारोहों में ही आभूषण पहनने की परम्परा है। विवाहित औरत की पहचान गले में चरेऊ पहनने से होती है। विवाह इत्यादि शुभ अवसरों पर विशेष कर कुमांऊ क्षेत्र में पिछौड़ा पहनने का भी यहाँ चलन आम है।
लोक कलाएँ
लोक कला की दृष्टि से उत्तराखण्ड बहुत समृद्ध है। घर की सजावट में ही लोक कला सबसे पहले देखने को मिलती है। दशहरा, दीपावली, नामकरण, जनेऊ आदि शुभ अवसरों पर महिलाएँ घर में ऐंपण (अल्पना) बनाती है। इसके लिए घर, ऑंगन या सीढ़ियों को गेरू से लीपा जाता है। चावल को भिगोकर उसे पीसा जाता है। उसके लेप से आकर्षक चित्र बनाए जाते हैं। विभिन्न अवसरों पर नामकरण चौकी, सूर्य चौकी, स्नान चौकी, जन्मदिन चौकी, यज्ञोपवीत चौकी, विवाह चौकी, धूमिलअर्ध्य चौकी, वर चौकी, आचार्य चौकी, अष्टदल कमल, स्वास्तिक पीठ, विष्णु पीठ, शिव पीठ, शिव शक्ति पीठ, सरस्वती पीठ आदि परम्परागत रूप से गाँव की महिलाएँ स्वयं बनाती है। इनका कहीं प्रशिक्षण नहीं दिया जाता है। हरेले आदि पर्वों पर मिट्टी के डिकारे बनाए जाते है। ये डिकारे भगवान के प्रतीक माने जाते है। इनकी पूजा की जाती है। कुछ लोग मिट्टी की अच्छी-अच्छी मूर्तियाँ (डिकारे) बना लेते हैं। यहाँ के घरों को बनाते समय भी लोक कला प्रदर्षित होती है। पुराने समय के घरों के दरवाजों व खिड़कियों को लकड़ी की सजावट के साथ बनाया जाता रहा है। दरवाजों के चौखट पर देवी-देवताओं, हाथी, शेर, मोर आदि के चित्र नक्काशी करके बनाए जाते है। पुराने समय के बने घरों की छत पर चिड़ियों के घोंसलें बनाने के लिए भी स्थान छोड़ा जाता था। नक्काशी व चित्रकारी पारम्परिक रूप से आज भी होती है। इसमें समय काफी लगता है। वैश्वीकरण के दौर में आधुनिकता ने पुरानी कला को अलविदा कहना प्रारम्भ कर दिया। अल्मोड़ा सहित कई स्थानों में आज भी काष्ठ कला देखने को मिलती है। उत्तराखण्ड के प्राचीन मन्दिरों, नौलों में पत्थरों को तराश कर (काटकर) विभिन्न देवी-देवताओं के चित्र बनाए गए है। प्राचीन गुफाओं तथा उड्यारों में भी शैल चित्र देखने को मिलते हैं।
उत्तराखण्ड की लोक धुनें भी अन्य प्रदेशों से भिन्न है। यहाँ के वाद्य यन्त्रों में नगाड़ा, ढोल, दमौं, रणसिंग, भेरी, हुड़का, बीन, डौंर,थाली, कुरूली, अलगाजा प्रमुख है। ढोल-दमौं तथा मशक बीन बाजा विशिष्ट वाद्ययन्त्र हैं जिनका प्रयोग आमतौर पर हर आयोजन में किया जाता है। यहाँ के लोक गीतों में न्योली, जोड़, झोड़ा, छपेली, बैर व फाग प्रमुख होते हैं। इन गीतों की रचना आम जनता द्वारा की जाती है। इसलिए इनका कोई एक लेखक नहीं होता है। यहां प्रचलित लोक कथाएँ भी स्थानीय परिवेश पर आधारित है। लोक कथाओं में लोक विश्वासों का चित्रण, लोक जीवन के दुःख दर्द का समावेश होता है। भारतीय साहित्य में लोक साहित्य सर्वमान्य है। लोक साहित्य मौखिक साहित्य होता है। इस प्रकार का मौखिक साहित्य उत्तराखण्ड में लोक गाथा के रूप में काफी है। प्राचीन समय में मनोरंजन के साधन नहीं थे। लोकगायक रात भर ग्रामवासियों को लोक गाथाएं सुनाते थे। इसमें मालसाई, रमैल, जागर आदि प्रचलित है। अभी गाँवों में रात्रि में लगने वाले जागर में लोक गाथाएं सुनने को मिलती है। यहां के लोक साहित्य में लोकोक्तियाँ, मुहावरे तथा पहेलियाँ (आंण) आज भी प्रचलन में है। उत्तराखण्ड का छोलिया नृत्य काफी प्रसिद्ध है। इस नृत्य में नृतक लबी-लम्बी तलवारें व गेण्डे की खाल से बनी ढाल लिए युद्ध करते है। यह युद्ध नगाड़े की चोट व रणसिंह के साथ होता है। इससे लगता है यह राजाओं के ऐतिहासिक युद्ध का प्रतीक है। कुछ क्षेत्रों में छोलिया नृत्य ढोल के साथ शृंगारिक रूप से होता है। छोलिया नृत्य में पुरूष भागीदारी होती है। कुमाऊँ तथा गढ़वाल में झुमैला तथा झोड़ा नृत्य होता है। झौड़ा नृत्य में महिलाएँ व पुरूष बहुत बड़े समूह में गोल घेरे में हाथ पकड़कर गाते हुए नृत्य करते है। विभिन्न अंचलों में झोड़ें में लय व ताल में अन्तर देखने को मिलता है। नृत्यों में सर्प नृत्य, पाण्डव नृत्य, जौनसारी, चाँचरी भी प्रमुख है।
धार्मिक तथ्य
उत्तराखण्ड को ’देवभूमि’ के नाम से भी जाना जाता है। इसका कारण है पौराणिक काल में इस क्षेत्र में हुए विभिन्न देवी-देवताओं द्वारा लिए अवतार हुए यहाँ त्रियुगी-नारायण नामक स्थान पर महादेव ने सती पार्वती से विवाह किया था। मन्सार नामक स्थान पर सीता माता धरती में धरती में समाई थी। यह स्थान उत्तराखण्ड के पौडी जिले में है और यहाँ प्रतिवर्ष एक मेला भी लगता है। कमलेश्वर/सिद्धेश्वर मन्दिर श्रीनगर का सर्वाधिक पूजित मन्दिर है। कहा जाता है कि जब देवता असुरों से युद्ध में परास्त होने लगे तो भगवान विष्णु को भगवान शंकर से इसी स्थान पर सुदर्शन चक्र मिला था। सती अनसूया ने उत्तराखण्ड में ही अपने तपोबल से ब्रह्मा, विष्णु, और महेश को बालक बनाया था।
राज्य पशु- कस्तूरी मृग, राज्य पक्षी - मोनाल, राज्य वृक्ष - बुरांस, राज्य पुष्प - ब्रह्म कमल
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