एकाश(इगास) यानि सुप्त शक्तियों का जागरण काल - TOURIST SANDESH

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सोमवार, 23 नवंबर 2020

एकाश(इगास) यानि सुप्त शक्तियों का जागरण काल

 एकाश(इगास) यानि सुप्त शक्तियों का जागरण काल

सुभाष चन्द्र नौटियाल 

सनातन धर्म, वैदिक संस्कृति में त्यौहार, व्रत, उत्सव, पर्व व महापुरूषों की जयन्तियां मनाने की परम्परा रही है। प्रकृति का संरक्षण तथा दैनिक उपभोग के लिए न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु सनातनी संस्कृति में अनेक उपाय बताये गये हैं। जीवन में प्रकृति का महत्व है, प्राकृतिक जीवन जीने की शैली से ही सृष्टि में व्याप्त अनंत सुख आनंद लिए जा सकते है। पृथ्वी के परिभ्रमण तथा परिक्रमण से दिन-रात अनेक तिथि, पर्व तथा ऋतुओं का काल समयानुसार निरन्तर चलता रहता है। वर्ष में आने वाले हर माह का अपना अलग महत्व होता है। इसी प्रकार वर्ष में आने वाला कार्तिक मास का विशेष महत्व है यह माह प्राकृतिक रूप से समृद्ध तथा मानव जीवन के अनुकूल माना जाता है। इस माह में सूर्य की किरणें प्रिय लगने लगती हैं। श्रीमद्भगवत गीता के अनुसार यह महीना दयालु व्यक्ति की तरह ही लोकपरोपकारी है। इसी अनुकूलन वातावरण में प्रमुख पर्वों एवं उत्सवों का वातावरण अपने चरमोत्कर्ष पर होता है। वास्तव यह समय सुप्त शक्तियों का जागरण काल भी माना जाता है। इसी महीने में भगवान विष्णु ने वामन अवतार लेकर राजा बलि से तीन डग जमीन मांगी तथा राजा को पाताललोक ळोज दिया था। इसी महीने नकारात्मकता के प्रतीक शंखासुर का वध भी किया था। जीवन में नकारात्मकता (काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्स्यर आदि) के विनास के लिए सकारात्मक सुप्त शक्तियों को जगाना आवश्यक होता है। भविष्य पुराण की कथा के अनुसार आसुरी शक्तियों के प्रतीक शंखासुर नामक दैत्य ने वेदों का हरण कर लिया था। उधर जब देवताओं को यह बात पता लगी तो उन्होंने उसका पीछा किया। पीछा करते वेद उसके हाथ से छूट कर समुद्र में गिर गए। वेदों को पुनः प्राप्त करने के लिए देवताओं ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की तब भगवान विष्णु ने मत्स्यावतार लेकर कार्तिक नवमी के दिन शंखासुर का वध किया था। वस्तुतः ज्ञान एवं शास्त्रों के दुरूपायोग को रोकने के लिए भगवान विष्णु का संदेश है कि जब-जब ज्ञान एवं शास्त्रों का दुरूपयोग किया जायेगा तब-तब सात्विक शक्तियां जाग्रत होकर दुरूपयोग कर्त्ता का विनास कर देंगी। इसी दिन सतयुग का उदय भी माना जाता है। शास्त्रानुसार जो भी व्यक्ति सत्यपथ पर चलकर जीवन निवार्ह करेगा उसका जीवन सत्यमय तथा ज्योतिर्मय हो जायेगा। कार्तिक मास की शुक्ल नवमी को आंवला वृक्ष की पूजा की जाती है। यह तिथि अक्षय नवमी के रूप् में भी जानी जाती है। आयुर्वेद के अनुसार आंवले के नियमित सेवन से चिरकाल तक युवास्था बनी रहती है, व्यक्ति के तेज में वृद्धि होती है तथा नेत्र ज्योति बढ़ती है। हमारे जीवन में आंवले वृक्ष का बहुत महत्ता है। आंवला त्रिफला औषधि (आंवला, हेड़ा, बहेड़ा) का महत्वपूर्ण फल  है। कार्तिक शुक्ल एकादशी को देवोत्थान एकादशी, पापमोचनी एकादशी, एकाश(इगास) या प्रबोधनी एकादशी का नाम दिया गया है। 

उत्तराखण्ड में इगास का महत्व

उत्तराखण्ड के पर्वतीय अंचलों में इसी दिन एकाश(इगास) मनायी जाती है। उत्तराखण्ड संस्कृति में सदियों से समयानुसार एकाश (इगास)-बग्वाल, देवदीपावली, मगंशीर माह में जौनसार भाबर में बूढ़ीदीपावली (भिरूड़ी पर्व) मनाने की परम्परा रही है।  जनश्रुति के अनुसार पर्वतीय अंचलों में भगवान राम के घर लौटने की खबर 11 दिन पश्चात् मिली इसी खुशी को व्यक्त करने के लिए यहां इगास मनाने की परम्परा रही है। इगास मनाने का दूसरा कारण है कि, गढवाल नरेश महिपति शाह की सेना के सेनापति वीर माधोसिंह गढवाल तिब्बत युद्ध में गढवाल की सेना का नेतृत्व कर रहे थे, गढवाल सेना इस युद्ध में विजयी रही लेकिन  माधोसिंह सेना की एक छोटी टुकड़ी के साथ मुख्य सेना से अलग होकर भटक गये सबने उन्हें वीरगति को प्राप्त मान लिया था लेकिन माधोसिंह बग्वाल के ठीक ग्यारह दिन बाद वापस आये तो सबने उनका स्वागत बड़े जोर-शोर से किया। तभी से इस क्षेत्र में अधिक उल्लास से इगास मनाने की परम्परा रही है। गढवाल - तिब्बत की जो सीमा माधो सिंह ने उस समय तय की थी वही वर्तमान में भारत- तिब्बत सीमा है । परन्तु सत्य यह  है कि मध्य हिमालयी क्षेत्र गढ़वाल में सदियों से इगास मनाने की परम्परा रही है। इस क्षेत्र में बारह महीनों की बारह बग्वाल (कार्तिक अमावस्य से कार्तिक शुक्ल पक्ष एकादशी तक) मनाने की सदियों से परम्परा चली आ रही है। इगास पर बग्वाल का समापन भी माना जा सकता है।  

 यह तिथि नारी  सम्मान से भी जुड़ती है। कार्तिक शुक्ल एकादशी के दिन शालिकराम (भगवान विष्णु का प्रतीक) तथा तुलसी विवाह की परम्परा भी भारतीय समाज में सदियों से रही है। धर्मग्रंथों की अनेक कथाओं में धरती पर मानव को विधिपूर्वक जीने तथा सामाजिक दायरे में रहने का संदेश समाहित है। दैनिक जीवन में यम , नियम, आसन, प्रणायाम, प्रत्याहार धारणा, ध्यान तथा समाधि को प्राप्त करने के लिए नित्य प्रति यौगिक क्रियाओं के रूप में जाना जाता है, मध्य हिमालयी क्षेत्र उत्तराखण्ड का हर व्रत त्यौहार, उत्सव तथा पर्व प्रकृति संरक्षण का संदेश देता है। प्रकृति से प्राप्त ऊर्जा का सद् प्रयोग करते हुए मनुष्य सिर्फ शरीरिक ही नहीं बल्कि मानसिक रूप से स्वस्थ रहते हुए सकारात्मक जीवन जी सकता है। इसके लिए प्रत्येक मानव को प्रकृति के अनुकूल रहते हुए अपनी जीवन शैली में न्यूनतम दोहन , अधिकतम संरक्षण के सिद्धांत का पालन करना होगा। सनातनी संस्कृति में प्रत्येक पर्व का एक विशेष उद्देश्य होता है। एकाश(इगास) पर्व का जीवन में सुप्त पड़ी सकारात्मक शक्तियों को जाग्रति करते हुए जीवन के उद्देश्य का साकार करना है। वेदों की ऋचाओं में प्रकृति के जो गुण बताये गये हैं, उनका उद्देश्य अदैन्य भाव से सौ वर्ष से अधिक जीने का है। हिरण्यगर्भ के रूप में सूर्य  की  पूजा की जाती है। सूर्य तीन रूपों में होते है-उदय, मध्य और अस्त। उदय सात्विकता का, माध्य राजस तथा अस्त तामस प्रवृत्ति का प्रतीक है। इसे आध्यात्मिक रूप में चिंतन, मनन तथा क्रियान्वयन त्रिकोणात्मक के रूप् में लिया जा सकता है। पुराणों में भगवान विष्णु की नाभि से निकले पर भगवान ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना की है। इसका संदेश यह है कि प्राकृतिक जीवन से ही सृष्टि में व्याप्त अंनत सुख आनन्द लिये जा सकते है। इसी के लिए वेदों में पंचमहाभूतों की शांति के उपाय बताये गये हैं।  प्रबोधिनी या देवोत्थान एकादशी या देवउठनी एकादशी  के नाम से जो आशय निकलता है वह देव शक्तियोँ के जाग्रत होने से है। माना जाता है कि भगवान विष्णु इसी दिन  चार माह के बाद योग निंद्रा से जागे थे। यानि सुप्त अवस्था में पड़ी हुई सकारात्मक शक्तियों को जागाने का समय एकाश(इगास) या देवोत्थान एकादशी पर्व मनाया जाता है। आलस्य जहां मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है। आलस्य हमें उपलब्धियों से वंचित कर देता है। अज्ञान का अंधकार हमें काम, क्रोध, मोह, मद तथा लोभ आदि आसुरी वृत्तियों में लपेट कर आसुरी रास्ते की ओर ले जाता है परन्तु जब सकारात्मक शक्तियां जाग्रत हो जाती हैं तो जीवन में आसुरी वृत्ति स्वयं ही समाप्त होने लगती है। यही एकाश(इगास) का महत्व  है।

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