पुस्तक समीक्षा
आंचलिक नेपथ्य मे बुना हिन्दी कहानी संग्रह : भयमुक्त बुग्याल तथा अन्य की पाठकीय समीक्षा
समीक्षक - मोहन कण्डवाल मदन
कथाकार : नन्द किशोर हटवाल
वर्ष, प्रकाशक : 2018, समय साक्ष्य।
Web : Samaysakshy.com.
आवरण चित्र : कुँवर रविन्द्र।
ISBN978_93_86452_66_5.
पेपरबैक, पृष्ठ : 122।
साफ छपाई, मूल्य : रू 140/_..।
समर्पण/ आमुख/ लेखकीय वक्तव्य : कुछ नही।
*शीर्षक कहानी : भयमुक्त बुग्याल।
कुल कहानियाँ : दस (10)
#जै_हिन्द
#भयमुक्त_बुग्याल*
#मेरा_भुला
#रतनकोबालिगहोनेकी_बधाईयाँ
#गाँवकीपूजा
#बैलकीजोडी़
#साझा_मकान
#कबट
#रामजीकी_लीला
#पुत्र_प्राप्ति
दस आँचलिक कहानियों मे से केवल चार कहानी बिना आँचलिक शब्दों के, जब कि छह कहानियों मे आँचलिक शब्द, अर्थ सहित, कथांत मे- पिच्चासी (85) मात्र। .......(काश! शब्दार्थ हर पृष्ठ के नीचे ही वितरित रहते? बार-बार पृष्ठ पलटने से कथारस मे व्यवधान बचता। कृपया प्रकाशक नोट करें ।)
भाषायिक/वर्तनी की अशुद्धि : दो या तीन स्थानों पर, (अभी याद न आ रहे, आते ही अपडेट होंगी।)
भाषा-शैली : हिन्दी और आँचलिक मिश्रित, सरल, वर्णनात्मक, वार्तालाप और लोकगीत सहित, व्यंग्यात्मक, व्यंजनात्मक और लेशमात्र यायावरीय पुट सन्निध किये हुए।
उद्धरणों मे लोकगीतांश : सिध्वाली (पृष्ठ 12) मात्र।
कथा क्रमानुसार, नेपथ्य संदर्भों के पाठकीय कयास/ आंशिक समानतायें :
1.चीन सीमा पर सेना और बुग्यालों मे पालसी लोगों का दुर्दश जीवन।
2. राजनैतिक /सामाजिक व्यंग्य, सहसा जॉर्ज और्वैल की सदाबहार "#एनीमल_फार्म" कहानी या लघु उपन्यास याद आती है।
3.सब्बि धाणि ड्यारदूण।
4. नाबॉलिग से बॉलिग हुआ उत्तराखंड और यथास्थिति।
5. पितृकूड़ी और स्वयँसेवी संस्थाओं द्वारा, लोक का सीमित रंगमंचीय विद्रूपीकरण।
6. ठेठ पहाडी़ हल्या की ठसक और पशुधन-प्रियता।
7. साझेपन से पलायन और लोभ-संवरणता से ग्रसित पहाडी़।
8. प्रचलित कुरीतियों पर कटाक्ष।
9. राम लीला के बहाने पनपी राजलीला और गुटबाजी।
10. पुत्र-पुत्री मे भेदभाव प्रथा।
जहाँ 'जै- हिन्द' कहानी मे पहाडी़ लोक की, समाज की और उसके पहरुए की नमकहलाली दिखती है, वहीं कहानी 'मेरा भुला' मे पलायित आज के और नये परिवारों की स्वार्थपरकताओं संग मयाल्दु मातृशक्ति की असमानता झकझोरती, वीरेन्द्र पँवार की घी कि माणि देहरादून (सब्बि धाणी...) याद आ जाती है। 'रतन को बालिग.......' कहानी उत्तराखंड के स्वार्थलिप्साओं मे आकण्ठ डूबे, तिकड़मी,छुटभैय्ये नीति-नियंताओं की कलई अ, ब , स, द पार्टियों के रूप मे खोलती है, पाठक मुजफ्फरनगर काण्ड के दंश के साथ पार्टियों को कोरिलेट कर सकते हैं।
'गाँव की पूजा' कहानी मे सब कुछ हम सभी ने, देहरादून मे एन जी ओज् और सरकार आयोजित कार्यक्रमों मे स्वयं भी घटित होते देखा होगा, पाठक की यथार्थिक कल्पनाओं को शब्दों मे बाँधती यह कहानी। कहानी 'साझा मकान' मे पसरे सँयुक्त मकानों के दर्द और पलायित रहवासियों के हिस्सेदारी की बेशर्मियाँ, आँख तो कभी भी नही मिला सकती हैं। 'कबट' और 'पुत्र-प्राप्ति' मे जहाँ पहाड़ मे अब भी जारी अंधविश्वासों पर चोट की गई है, वँही 'राम जी की लीला' के बहाने देवभूमि हिमालय की ओर सरकते राजनैतिक गुटबंदियों की पड़ताल गुदगुदाती तो है पर अन्त मे अवाक् छोड़ जाती है।
'बैल की जोडी़' कहानी लम्बी तो है ही, पर प्रेमचन्द की दो बैलों की कथा सी रुचिकर और अलग नेपथ्य और प्रयोजनवश बुनी हुई है। यह हल्या के स्वभाव की हठता से लुभाती है और मुझे तो अपने गाँव क्या, आसपास भी दो या तीन विगत और जीवित किरदार आज भी याद आते हैं। अंत मे शीर्षक कहानी "भयमुक्त बुग्याल", जहाँ जार्ज ऑरवेल् की 'ऐनीमल फार्म' सी साम्यता लिये हुये है, वहीं लेखक ने मेंढों, भेडों, बकरियों, लगोठों और भेड़ियों के बहाने उत्तराखंड की बुग्यालों की आंचलिकता से भरपूर पर राष्ट्रीय फलक/ स्तर की हिंदी कहानी को रचकर इसे अजर, अमर बनाने मे कोई कोर-कसर नही छोडी़ है।
कहानी संग्रह : भयमुक्त बुग्याल तथा अन्य की पाठकीय समीक्षा
आंचलिक नेपथ्य मे बुना हिन्दी कहानी संग्रह : भयमुक्त बुग्याल तथा अन्य की पाठकीय समीक्षा
समीक्षक - मोहन कण्डवाल मदन
कथाकार : नन्द किशोर हटवाल
वर्ष, प्रकाशक : 2018, समय साक्ष्य।
Web : Samaysakshy.com.
आवरण चित्र : कुँवर रविन्द्र।
ISBN978_93_86452_66_5.
पेपरबैक, पृष्ठ : 122।
साफ छपाई, मूल्य : रू 140/_..।
समर्पण/ आमुख/ लेखकीय वक्तव्य : कुछ नही।
*शीर्षक कहानी : भयमुक्त बुग्याल।
कुल कहानियाँ : दस (10)
#जै_हिन्द
#भयमुक्त_बुग्याल*
#मेरा_भुला
#रतनकोबालिगहोनेकी_बधाईयाँ
#गाँवकीपूजा
#बैलकीजोडी़
#साझा_मकान
#कबट
#रामजीकी_लीला
#पुत्र_प्राप्ति
दस आँचलिक कहानियों मे से केवल चार कहानी बिना आँचलिक शब्दों के, जब कि छह कहानियों मे आँचलिक शब्द, अर्थ सहित, कथांत मे- पिच्चासी (85) मात्र। .......(काश! शब्दार्थ हर पृष्ठ के नीचे ही वितरित रहते? बार-बार पृष्ठ पलटने से कथारस मे व्यवधान बचता। कृपया प्रकाशक नोट करें ।)
भाषायिक/वर्तनी की अशुद्धि : दो या तीन स्थानों पर, (अभी याद न आ रहे, आते ही अपडेट होंगी।)
भाषा-शैली : हिन्दी और आँचलिक मिश्रित, सरल, वर्णनात्मक, वार्तालाप और लोकगीत सहित, व्यंग्यात्मक, व्यंजनात्मक और लेशमात्र यायावरीय पुट सन्निध किये हुए।
उद्धरणों मे लोकगीतांश : सिध्वाली (पृष्ठ 12) मात्र।
कथा क्रमानुसार, नेपथ्य संदर्भों के पाठकीय कयास/ आंशिक समानतायें :
1.चीन सीमा पर सेना और बुग्यालों मे पालसी लोगों का दुर्दश जीवन।
2. राजनैतिक /सामाजिक व्यंग्य, सहसा जॉर्ज और्वैल की सदाबहार "#एनीमल_फार्म" कहानी या लघु उपन्यास याद आती है।
3.सब्बि धाणि ड्यारदूण।
4. नाबॉलिग से बॉलिग हुआ उत्तराखंड और यथास्थिति।
5. पितृकूड़ी और स्वयँसेवी संस्थाओं द्वारा, लोक का सीमित रंगमंचीय विद्रूपीकरण।
6. ठेठ पहाडी़ हल्या की ठसक और पशुधन-प्रियता।
7. साझेपन से पलायन और लोभ-संवरणता से ग्रसित पहाडी़।
8. प्रचलित कुरीतियों पर कटाक्ष।
9. राम लीला के बहाने पनपी राजलीला और गुटबाजी।
10. पुत्र-पुत्री मे भेदभाव प्रथा।
जहाँ 'जै- हिन्द' कहानी मे पहाडी़ लोक की, समाज की और उसके पहरुए की नमकहलाली दिखती है, वहीं कहानी 'मेरा भुला' मे पलायित आज के और नये परिवारों की स्वार्थपरकताओं संग मयाल्दु मातृशक्ति की असमानता झकझोरती, वीरेन्द्र पँवार की घी कि माणि देहरादून (सब्बि धाणी...) याद आ जाती है। 'रतन को बालिग.......' कहानी उत्तराखंड के स्वार्थलिप्साओं मे आकण्ठ डूबे, तिकड़मी,छुटभैय्ये नीति-नियंताओं की कलई अ, ब , स, द पार्टियों के रूप मे खोलती है, पाठक मुजफ्फरनगर काण्ड के दंश के साथ पार्टियों को कोरिलेट कर सकते हैं।
'गाँव की पूजा' कहानी मे सब कुछ हम सभी ने, देहरादून मे एन जी ओज् और सरकार आयोजित कार्यक्रमों मे स्वयं भी घटित होते देखा होगा, पाठक की यथार्थिक कल्पनाओं को शब्दों मे बाँधती यह कहानी। कहानी 'साझा मकान' मे पसरे सँयुक्त मकानों के दर्द और पलायित रहवासियों के हिस्सेदारी की बेशर्मियाँ, आँख तो कभी भी नही मिला सकती हैं। 'कबट' और 'पुत्र-प्राप्ति' मे जहाँ पहाड़ मे अब भी जारी अंधविश्वासों पर चोट की गई है, वँही 'राम जी की लीला' के बहाने देवभूमि हिमालय की ओर सरकते राजनैतिक गुटबंदियों की पड़ताल गुदगुदाती तो है पर अन्त मे अवाक् छोड़ जाती है।
'बैल की जोडी़' कहानी लम्बी तो है ही, पर प्रेमचन्द की दो बैलों की कथा सी रुचिकर और अलग नेपथ्य और प्रयोजनवश बुनी हुई है। यह हल्या के स्वभाव की हठता से लुभाती है और मुझे तो अपने गाँव क्या, आसपास भी दो या तीन विगत और जीवित किरदार आज भी याद आते हैं। अंत मे शीर्षक कहानी "भयमुक्त बुग्याल", जहाँ जार्ज ऑरवेल् की 'ऐनीमल फार्म' सी साम्यता लिये हुये है, वहीं लेखक ने मेंढों, भेडों, बकरियों, लगोठों और भेड़ियों के बहाने उत्तराखंड की बुग्यालों की आंचलिकता से भरपूर पर राष्ट्रीय फलक/ स्तर की हिंदी कहानी को रचकर इसे अजर, अमर बनाने मे कोई कोर-कसर नही छोडी़ है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें