गिरता रुपया, गिरती साख
-सुभाष चन्द्र नौटियाल
विपक्ष में रहते हुए वर्तमान विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने कहा था कि जैसे-जैसे डॉलर के मुकाबले रुपये गिरता है वैसे-वैसे भारत की साख भी गिरती है आज स्वराज स्वयं महसूस कर रही होगीं कि गिरते रूपये के कारण विश्व में भारत की कितनी साख गिरी है।
मोदी राज में डॉलर के मुकाबले रुपया सबसे निचले स्तर पर आ पहुंचा है। रुपया पहली बार डॉलर के मुकाबले गिरकर रिकॉर्ड 73 रूपये से नीचे आ चुका है तेल की बढ़ती वैश्विक कीमतों और पूंजी निकासी जारी रहने के बीच आयातकों से अमेंरिकी मुद्रा के लिए मजबूत मांग के चलते भारतीय रुपये में रिकॉर्ड गिरावट आ रही है। बढ़ता व्यापार घाटा भी रुपये का गिरने का कारण है। हमारे निर्यात पर निरन्तर दबाव बढ़ रहा है। जबकि आयात बढ़ता जा रहा है। ऐसे विषम हालात पैदा करने के लिए हमारी आर्थिकी नीतियां जिम्मेदार हैं, वास्तव में जिन देशों ने नब्बे के दशक में अपने निर्यात को बढ़ाने के लिए मुक्त बाजार व्यवस्था को थोपा था तथा संरक्षणवाद की आलोचना की थी। आज वही देश अपने निर्यात को बरकरार रखने तथा अपने यहां आयात को घटाने के लिए संरक्षणवादी रवैया अपना रहे हैं। आयात को हतोत्साहित करने के लिए ताकतवर देश मनमाना रवैया अपना रहे हैं। इसी कड़ी में अमेरिका ने भारत और चीन के इस्पात पर आयात शुल्क बढ़ा दिए हैं। जबकि हमारी सरकार अभी भी मुक्त व्यापार का मंत्र जाप कर रही है। सच्चाई तो यह है कि मुक्त व्यापार की पैरवी करने वाले देशों की सरहदें आज हमारे निर्यात के लिए बंद होती जा रही हैं। फिर भी हमने अपनी सरहदों को आयात के लिए खोल रखा है। यही कारण है कि भारत में व्यापार घाटा बढ़ता जा रहा है।
रुपये का गिरने का एक कारण गैर जरूरी वस्तुओं का अंधाधुंध आयात करना भी है। पैट्रोल और डीजल की बढ़ती खपत भी रुपये का गिरने का कारण है। जबकि भारतीय दर्शन में त्यागपूर्वक उपभोग पर जोर दिया जा रहा है, परन्तु सरकार द्वारा इस अवधारणा को तहस-नहस करते हुए उपभोक्तावादी संस्कृति को बढ़ावा दिया जा रहा है। जो की भारतीय दर्शन के विपरीत है।
रूपये का गिरने का एक कारण रिजर्व बैंक के हस्तक्षेप का अभाव भी बताया जा रहा है। जब हमारी मुद्रा में यकायक तेजी या गिरावट आती है तो रिजर्व बैंक हस्तक्षेप कर नियंत्रित करने की कोशिश करता है परन्तु रिजर्व बैंक के हस्तक्षेप से रूपये के मूल्य में तात्कालिक गिरावट को रोका जा सकता है यह दीर्घकालीन हल नहीं है। भारत जैसे आयातक देश में रूपये का गिरना भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए शुभ संकेत नहीं है। इसकी स्थिरता महत्वपूर्ण है। चीन जैसे निर्यातक देशों के लिए अपनी मुद्रा का गिरना अच्छी बात है, बल्कि चीन कही बार स्वयं अपनी मुद्रा का अवमूल्यन करता है। लेकिन भारत जैसे आयातक देश के लिए रूपये का गिरना हानिकारक है। पहले रिजर्व बैंक रूपये को गिरने से रोकने के लिए बाजार में हस्तक्षेप करता था, लेकिन इस समय ऐसा नहीं हो रहा है रिजर्व बैंक मौन साधकर बैठा है। यदि हमें रूपये की साख को बचाना है तो हमें अपने उत्पाद तैयार करने वाली लागत को कम करना पड़ेगा। माल तैयार करने की लागत यदि कम होगी तो अंतरराष्ट्रीय बाजार में हम प्रतिस्पर्धा में टिक पायेंगे। चीन इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है वहां उत्पादन लागत कम है। इसलिए चीन विश्व बाजारों में धाक जमा रहा है। जिन वस्तुओं का हमारे यहां उत्पादन कम होता या नही के बराबर होता है। उनका उपयोग भी सीमित कर रूपये की साख बचायी जा सकती है। यह भी ध्यान देने योग्य है कि हमने अपनी ऊर्जा खपत को अनायास ही बढ़ा दिया है। विश्व का प्रत्येक देश अपने यहां उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों के अनुरूप ही अपनी विकास नीति तय करता है परंतु इस देश में बनी सरकारों ने इसका सही आंकलन ही नहीं किया है। इसीलिए अर्थ नीति उपलब्ध संसाधनों के अनुरूप नहीं बन पायी है। संसाधनों के अनुकूल ही आर्थिक विकास की रणनीति तैयार करनी होती है परंतु इसमें हम पूर्ण रूप से असफल साबित हुए हैं। गिरते रूपये का मूल कारण हमारी प्रतिस्पर्धात्मक शाक्ति का ह्ास है। हमने नई तकनीकों का समावेश एवं शिक्षा में तकनीकी विषयों को जोड़ने का पर्याप्त कार्य नहीं किया है। अनावश्यक मुक्त व्यापार को अपनाकर हमने अपना व्यापार घाटा बढ़ाया है। इसके लिए हमारी दोष पूर्ण अर्थनीति जिम्मेदार है। रूपये के मूल्य को गिरने से रोकने के लिए सरकार को अपनी अर्थ नीतियों पर पुनर्विचार करना चाहिए तभी सशक्त भारत की कल्पना साकार हो सकती है।

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