रक्षाबंधन
हमारा देश भारत वर्ष विविधताओं से भरा देश है यहां ऋतु के अनुसार विभिन्न पर्व व त्यौहारो को मनाने की परम्परा रही है।
जीवन में नीरसता को समाप्त करने तथा उत्साह व नवीनता का संचार करने के लिए हमारे जीवन में इन पर्वों का बहुत अधिक महत्व है। इसी क्रम में श्रावण मास की पूर्णमासी तिथि को रक्षाबंधन का पर्व बनाया जाता है। इस पर्व को श्रावणी-उपाक्रम, ऋषि तर्पण, वेद स्वाध्याय, विश्व संस्कृत दिवस के रूप में मनाया जाता है। यह मुख्य रूप से भाई-बहनों का त्यौहार है। जिसमें बहने प्रातः जल्दी उठकर पूजा की थाली सजाती है। थाली में राखी के साथ-साथ, रोली- हल्दी, चावल, मिठाई, दीपक व सगुन रखकर सर्वप्रथम अपने ईष्ट देव की अर्चना करती है। तत्पश्चात् अपने भाई का तिलक कर उसके दाहिने कलाई पर राखी बांधती है। इसके बाद भाई अपनी बहन को कोई उपहार या सगुन देता है। इस प्रकार से रक्षाबंधन के अनुष्ठान को पूरा करके ही भोजन ग्रहण किया जाता है।
अनेक स्थानों में इसे श्रावणी पर्व भी कहते है। इस दिन यजुर्वेदी द्विजों का उपकर्म होता है। उत्सर्जन, स्नान विधि, ऋषि तर्पणादि करके नवीन यज्ञोपवीत धारण किया जाता है। ब्रह्माणों का यह सर्वोपरि त्यौहार माना जाता है। वृत्तिवान ब्राह्मण अपने यजमानों को याज्ञोपवीत तथा राखी देते है। यजमान अपने ब्रह्मणों को दक्षिणा देकर ब्रह्मणों से आशीर्वाद लेते हैं। अमरनाथ की सुविख्यात धार्मिक यात्रा गुरू पूर्णिमा से प्रारम्भ होकर रक्षाबंधन के दिन सम्पूर्ण होती है। कहते है इसी दिन यहां का हिम शिवलिंग भी अपने पूर्ण आकार को प्राप्त होता है। इस उपलक्ष में इस दिन अमरनाथ गुफा में प्रत्येक वर्ष मेले का आयोजन किया जाता है।
रक्षाबंधन का यह त्यौहार कब शुरू हुआ यह कोई नहीं जानता लेकिन स्कन्धपुराण, पद्मपुराण, विष्णु पुराण व श्रीमद्भागवत् आदि धर्मग्रन्थों में इसका उल्लेख मिलता है। वामनावतार नामक कथा में रक्षाबंधन का प्रसंग मिलता है। कथा के अनुसार-दानवेन्द्र राजा बलि ने जब 100 यज्ञ पूर्ण कर स्वर्ग का राज्य छीनने का प्रयत्न किया तो इन्द्र आदि देवताओं ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की तब भगवान वामन अवतार लेकर ब्राह्मण का वेष धारण कर राजा बलि से भिक्षा मांगने पहुंचे। दैत्यों के गुरू शुक्राचार्य ब्राह्मण भेषधारी भगवान विष्णु को पहचान जाते है वह राजा बलि से कहते हैं कि यह भगवान विष्णु हैं परन्तु अभिमान के बल में उन्मत राजा बलि गुरू की कही हुई बात को भी नजर अंदाज कर देता है तथा भगवान विष्णु को साधारण ब्राह्मण समझ कर उसे कुछ मांगने के लिए कहता है। साथ ही राजा बलि यह भी वचन देता है कि ब्राह्मण द्वारा जो कुछ भी मांगा जायेगा राजा बलि उसे पूरा करेंगे। भगवान विष्णु तीन डग जमीन की मांग करते हैं। राजा बलि सहर्ष स्वीकृति प्रदान करते है। भगवान विष्णु दो डग में ही समस्त ब्रह्माण्ड को माप देते है तथा राजा बलि से पूछते है कि मैं अपना तीसरा डग कहा रखूं राजा बलि अपना सिर प्रस्तुत करते हैं। भगवान विष्णु राजा बलि के सिर पर पावं रख कर उसे पताललोक में भेज देते हैं। भगवान विष्णु द्वारा राजा बलि के घमण्ड को चकनाचूर कर देने के कारण यह त्यौहार बलेव नाम से भी प्रसिद्ध हुआ।
कहते है जब बलि रसातल में चला गया तब बलि ने अपनी भक्ति के प्रभाव से भगवान विष्णु को रात-दिन अपने सामने रहने का वचन ले लिया। भगवान विष्णु के वैकुंट धाम न लौटाने से परेशान लक्ष्मी जी को नारद जी ने एक उपाय बताया उस उपाय का पालन करते हुए लक्ष्मी जी ने राजा बलि के पास जाकर उसे रक्षासूत्र बांधकर अपना भाई बनाया और अपने पति को अपने साथ ले आयी। उस दिन श्रावण मास की पूर्णिमा तिथि भी। विष्णु पुराण के एक प्रसंग में कहा गया है कि श्रावण पूर्णिमा के दिन भगवान विष्णु ने ह्यग्रीव के रूप में अवतार लेकर वेदों को ब्रह्मा के लिये फिर से प्राप्त किया था। ह्यग्रीव को विद्या और बुद्धि का प्रतीक माना जाता है।
महाभारत में भी इस बात का उल्लेख है कि जब ज्येष्ठ पाण्डव युधिष्ठिर ने भगवान कृष्ण से पूछा कि मैं सभी संकटों को कैसे पार कर सकता हूं तब भगवान कृष्ण ने उनकी सेना की रक्षा के लिए राखी की त्यौहार मनाने का उपाय बताया था। उन्होंने कहा कि इस रेशमी धागे में वह शक्ति है जिससे आप हर आपत्ति से मुक्ति पा सकते हैं। इस समय द्रोपती द्वारा कृष्ण को व कुंती द्वारा अभिमन्यु को राखी बांधने का उल्लेख मिलते है। महाभारत में ही रक्षाबंधन से सम्बन्धित कृष्ण और द्रौपती का एक और वृतांत भी मिलता है। जब कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से शिशुपाल का वध किया तब उनकी तर्जनी में चोट आ गई। द्रोपती ने उस समय अपनी साड़ी फाड़कर उनकी उंगली पर पट्टी बांध दी। यह श्रावण मास की पूर्णिमा का दिन था। कृष्ण ने इस उपकार का बदला बाद में चीरहरण के समय उनकी साड़ी को बढ़ाकर चुकाया। कहते है परस्पर एक दूसरे की रक्षा और सहयोग की भावना रक्षाबंधन के पर्व में यहीं से प्रारम्भ हुई।
यह भी कहा जाता है कि मेवाड़ की रानी कर्मावती को बहादुरशाह द्वारा मेवाड़ पर हमला करने की पूर्व सूचना मिली। रानी लड़ने में असमर्थ थी। अतः उसने मुगल बादशाह हुमायूं को रेशम की एक डोर (राखी) भेजकर रक्षा की याचना की। बादशाह हुमायूं ने मुसलमान होते हुए भी राखी की लाज रखी और मेवाड़ पहुंच कर बहादुरशाह के विरूद्ध मेवाड़ की और से लड़ते हुए कर्मवती व उसके राज्य की रक्षा की थी।
हिन्दू धर्म के सभी धार्मिक अनुष्ठानों में रक्षासूत्र बांधने समय कर्मकाण्डी पण्डित या आचार्य संस्कृत में एक श्लोक का उच्चारण करते है। जिसमें रक्षाबंधन का सम्बन्ध राजा बलि से स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है। भविष्य पुराण के अनुसार इन्द्राणी द्वारा निर्मित रक्षासूत्र को देवगुरू बृहस्पति ने इन्द्र के हाथों बांधते हुए निम्नलिखित स्वस्तिवाचन किया-
येन बद्धो बलिराजा दानवेन्द्रो महाबलः
तेन त्वामनु बंध्नामि रक्षे माचल मा चल।।
(जिस रक्षासूत्र से महान शक्तिशाली दानवेन्द्र राजा बलि को बांधा गया था, उसी सूत्र से मैं तुझे बाधता हूं। हे रक्षे (राखीद्ध तुम अडिग रहना (तू अपने संकल्प से कमी भी विचलित न हो।)
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम मे रक्षा बंधन पर्व की भूमिका
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में जन जागरण के लिए भी इस पर्व का सहारा लिया गया। श्री रविन्द्रनाथ ठाकुर ने बंग-भंग का विरोध करते समय रक्षाबंधन त्यौहार को बंगाल निवासियों के पारम्परिक भाईचारे तथा एकता का प्रतीक बनाकर इस त्यौहार का राजनीतिक उपयोग आरम्भ किया। 1905 में उनकी प्रसिद्ध कविता मातृभूमि वंदना का प्रकाशन हुआ जिसमें वे लिखते हैं-
‘‘हे प्रभु !मेरे बंगदेश की धरती, नदियां , वायु, फूल सब पावन हो।
हे प्रभु! मेरे बंगदेश के प्रत्येक भाई बहन के उर अन्तः स्थल, अविछन्न, अविभक्त एंव एक हो।
सन् 1905 में लार्ड कर्जन ने बंग-भंग करके वन्दे मातरम् के आंदोलन से भड़की एक छोटी सी चिंगारी को शोलों में बदल दिया। 16 अक्टूबर 1905 को बंग-भंग की नियत घोषण के दिन रक्षा बंधन की योजना साकार हुई और जनता गंगा स्नान करके सड़को पर यह कहते उतर आये-
सप्त कोटि लोकेर करूण, सुनेना सुनिल कर्जन दुर्जन।
ताइ नित प्रतिशोध मनेर मतन करिल, आभि स्वजने राखी बंधन।।
-शिवानी पाण्डे
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