उत्तराखण्ड के सन्दर्भ में जल
सुभाष चन्द्र नौटियाल
मध्य हिमालयी क्षेत्र में स्थित उत्तराखण्ड राज्य का हिमालयी क्षेत्र न सिर्फ भारत का बल्कि सम्पूर्ण विश्व के प्रमुख जलशक्ति सम्पन्न क्षेत्रों में एक है। उत्तराखण्ड के हिमालयी क्षेत्र का धरातल समुद्र तल से 335 मीटर से लेकर 7817 मीटर तक ऊंचा है। इस क्षेत्र में अनेक पर्वत श्रेणियां, हिमनद, गहरी घाटियां, बड़ी चट्टानें और तलहटी में जलोढ़ मिट्टी पाई जाती है।
क्षेत्र की विशेष भू-आकृति के कारण उचित जल भंडारण की क्षमता है। हिमालय में जल भण्डारण की क्षमता एवं जल की उपलब्धता एक सीमा तक भूमि की बनावट, पहाड़ियों की संरचना, चट्टानों के ढाल तथा सूर्य के प्रकाश की स्थिति पर निर्भर करता है। कठोर आग्नेय चट्टानों में जल संचयन क्षमता कम होती है परंतु भण्डारण की क्षमता अधिक होती है। इसके ठीक विपरीत बलुई पहाड़ों में जल संचयन की क्षमता अधिक होती है परन्तु अधिक समय तक जल भंडारण की क्षमता का अभाव होता है।
उत्तराखण्ड की संस्कृति मूल रूप से अरण्यक संस्कृति है। पर्वतीय जनजीवन जल, जंगल तथा जमीन पर निर्भर है। जल, जंगल, जमीन ही इनकी जीविकोपार्जन का मुख्य आधार है। यही कारण है कि, इस क्षेत्र की महिलायें वनों को अपना मायका मानती हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में कृषि, वनस्पतियां अधिकांश वर्षा जल पर ही अधिक निर्भर रहती हैं। यहां पर निवास करने वाला अधिकतर जनजीवन विकसित है, यहां के लोग कृषि एवं आवास दोनों के लिए भूमि का उचित उपयोग करते आये हैं। भले ही आधुनिकता की चाहत तथा पलायन की मार से वर्तमान समय में स्थिति परिवर्तन देखी जा रही है परन्तु पहाड़ का जनजीवन प्रकृति संरक्षण के प्रति सदैव सजग रहा है। राज्य का 71.05 प्रतिशत भू-भाग वनीय है। यहां पर वर्षाजल, प्राकृतिक जल स्रोत(धारा, नौला), गाड-गधेरे, नदी, नाले, ग्लेशियर एवं भूमिगत जल स्रोतों की प्रमुखता पायी जाती है।
उत्तराखण्ड का क्षेत्रफल 53,483 वर्ग किलोमीटर है तथा इस क्षेत्रफल के 3550 वर्ग कि0मी0 में प्रमुखरूप से 917 हिमनद हैं। एक सामान्य हिमनद में 01 से 10 क्यूसिक कि.मी. पानी होता है। उत्तराखंड के हिमनदों में मिलम हिमनद (19 कि.मी.), गंगोत्री हिमनद (29 कि.मी.), सतोपंथ (11 कि.मी.), उत्तरी नंदा देवी (19 कि.मी.), माणा (19 कि.मी.), भागीरथी खरक (19 कि.मी.), केदारनाथ (14 कि.मी.), कोना (11 कि.मी.), सरा उगमा (17 कि.मी.), पिंडारी (09 कि.मी) आदि अनेक प्रमुख अनेक हैं। ये हिमनद या ग्लेशियर उत्तराखण्ड क्षेत्र में केवल भारत ही नहीं बल्कि दुनिया के सर्वाधिक जल शक्ति संपन्न क्षेत्रों में एक है।
हिमालयी क्षेत्र के ऊपरी भाग में हिम बारिश होने के कारण हिम लोक का निर्माण करती हैं। इसी हिम लोक में बर्फ से लकदक हुई लम्बी परतें टूटने, छंटने एवं पिघलने लगती हैं तो ये बड़े-बड़े हिमखण्ड पिघलकर धीरे-धीरे नीचे की ओर सरकने लग जाते हैं जिससे हिमनद या ग्लेशियरों का निर्माण होता है। यही हिमनद उत्तराखण्ड में सालभर बहने वाली सतत् प्रवाहमान नदियों का निर्माण करती हैं।
उत्तराखण्ड की नदियां सतत प्रवाहमान होने के कारण भारत सहित सम्पूर्ण विश्व के लिए महत्तपूर्ण जल निधि हैं। राष्ट्र के जनसामान्य सहित सभी जीवधारियों को अमृतमयी जल पिलाकर जीवनदायनी ये नदियां नाद का स्वर उत्पन्न करती हुई लम्बी यात्रा तय करने के बाद अन्ततः सागर में समाहित हो जाती हैं। जल वैज्ञानिकों के मतानुसार इस क्षेत्र में 22575 मीलियन क्यूबिक मीटर पानी प्रति वर्ष बहता है। इसका 62 प्रतिशत भाग गढ़वाल में तथा 38 प्रतिशत भाग कुमाऊं में स्थित है।
अलकनन्दा एवं उसकी सहायक नदियां उत्तराखण्ड के 26 प्रतिशत क्षेत्र में घिरी हुई हैं। कुल जल का 23.7 प्रतिशत भाग जलराशि 5339 मिलियन क्यूबिक मीटर जल इन्हीं नदियों से प्राप्त होता है। भागीरथी एवं उसकी सहायक नदियों की जलराशि 2533 मिलियन क्यूबिक मीटर है। अलकनन्दा तथा भागीरथी देवप्रयाग में संगम करती हुई देश की पवित्र नदी गंगा का निर्माण करती हैं। टोन्स 4844, यमुना 1651, काली 2387, रामगंगा 972, कोसी 1870, सरयू 1350, नयार पूर्वी तथा पश्चिमी में मिलकरं 1626 मिलियन क्यूबिक मीटर पानी उपलब्ध है। रामगंगा तथा नयार(पूर्वी एवं पश्चिमी) का उद्गम स्थल पौड़ी गढ़वाल जिले में स्थित दूधातोली की पर्वत श्रृंखला है। उत्तराखण्ड में निरन्तर बहने वाली पवित्र नदियों की कल-कल, छल-छल ध्वनि की बहती हुई जलधाराओं द्वारा संपूर्ण राष्ट्र को जीवन प्राप्त होता है।
भू-वैज्ञानिकों के अनुसार उत्तराखण्ड की पहाड़ियों में भूमिगत जल के भण्डार विद्यमान हैं। वर्षा का पानी जमीन के अन्दर से होकर चट्टानों की परतों के बीच जमा हो जाता है। मैदानी क्षेत्रों में तो भूमिगत जल की बड़ी झीलें पाई जाती हैं तथा इसका सम्बन्ध मीलों दूर तक होता है। लेकिन पर्वतीय क्षेत्रों में भूमिगत जल अल्प मात्रा में पाया जाता है।
उत्तराखण्ड के ग्रामीण जनजीवन में प्राकृतिक जलस्रोतों(धारा, नौला) का बड़ा महत्व है। इन प्राकृतिक जलस्रोतों को सहजने तथा संरक्षण के लिए यहां के ग्रामीण जनजीवन में नीति-रीति को सांस्कृतिक परम्पराओं से जोड़ते हुए जल संरक्षण की अनूठी परम्परा रही है। प्रकृति की यह प्रक्रिया पहाड़ के लिए जीवनदायिनी तथा जीवन के सतत् प्रवाहमान के लिए अविरल जारी रहे इस के लिए इस संस्कृति से आत्मसात् करने की आवश्यकता है। बरसात के मौसम में अधिक वर्षा हो जाने से धरातल पर अनेक जल धाराएं फूट पड़ती हैं। लेकिन बरसात के मौसम की समाप्ति के पश्चात् जल स्तर कम होने लगता है तो, कुछ ही स्रोतों में जलधारा स्थाई रूप से बहता रहता है। प्रकृति की यह देन पहाड़ के मानवीय जीवन का प्रमुख आधार है। यदि ये जल स्रोत नहीं होते तो पहाड़ी जनजीवन की कल्पना करना संभव नहीं होता।
नियमित वर्षा होने पर यह जल पुनः संचरित होकर बहने लग जाता है जिससे आसपास की वनस्पतियां हरी-भरी हो जाती हैं। लेकिन अब मानसून एवं तापमान परिवर्तन होने से ये भूमिगत जल स्रोत सूखते जा रहे हैं। वैज्ञानिकों का मानना है कि पारिस्थितिकी असंतुलन होने से भूमिगत जलस्रोत में जल स्तर कम होता जा रहा है।
इन जल स्रोतों को सुरक्षित एवं पुनः संचरित करना देश के प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है। जल स्रोतों के आस-पास हरे-भरे पौधों(जैसे- बांज, बुरांस, गढ़बांस, अतीस आदि स्थानीय प्रजाति के मिश्रित वन, जो प्रजाति जल संरक्षण करती हों) का रोपण किया जाना चाहिए। वृक्षों की जड़ें जल को अपने मे समाहित रखती हैं तथा भू-कटाव को भी रोकती हैं।
राष्ट्र का पोषण करने वाली गंगा, यमुना सहित श्रेष्ठ नदियों का मायका होने के कारण यह क्षेत्र मानवीय संवेदनाओं से भी परिपूर्ण है। सदानीरा नदियां अविरल प्रवाह के साथ प्रवाहमान रहें। भारत के मुख्य जल स्रोत हिमालय में जल की परिपूर्णता सदा बनी रहे, जिससे कि यह हिमालय संपूर्ण विश्व को जल प्रदान करता रहे और हमारा राष्ट्र श्रेष्ठ जल प्रबंधन करके विश्व में ‘‘वसुधैव कुटम्बकम्’’ की भारतीय अवधारणा को साकार करते हुए स्थायी शान्ति का अग्रदूत बनकर गौरव प्राप्त करें।
शं ते आपो हेमवतीः शत्रु ते सन्तुतव्याः।
शंते सनिष्यदा आपः शत्रु ते सन्तुवर्ष्या।। अथर्ववेद ।।19।।2।।1।।
(हिम या हिमालय से उत्पन्न, स्रोत से प्रभावित होने वाली तीव्र गति से बहने वाली जलधारा प्रवाह तथा वर्षा द्वारा नदियों में आने वाले जल प्रवाह, ये सभी हमारे लिए शुभकारक, मंगलदायक एवं कल्याणकारी हों।)
उत्तराखण्ड में जल संरक्षण के लिए लोक नीति-रीति
उत्तराखण्ड में जल संरक्षण के लिए संस्कृति को प्रकृति से जोड़ते हुए अनूठी लोकनीति-रीति रही है। जल संरक्षण को संस्कृति के साथ समाहित कर दैनिक जीवन में किस प्रकार से जल का उपयोग हो ताकि आने वाली पीढ़ी के लिए जल संरक्षित रहे इस लोकनीति को सांस्कृतिक परम्पराओं से जोड़ा गया। सांस्कृतिक परम्पराओं के निर्वहन के लिए वर्षभर आने वाले तीज-त्यौहारों तथा लोक समारोहो, विवाह, शादी, नामकरण, मुण्डन, सगाई आदि संस्कारों में धार्मिक मान्यताओं से जोड़कर जल संरक्षण के लिए यह लोकनीति बनायी गयी। उत्तराखण्ड में सामूहिकता एवं सामूदायिकता का सदैव महत्व रहा है। पूर्व में यहां के ग्रामीण परिवेश में जल संरक्षण की परम्परायें खाल-चाल, धारा, नौला, गाड-गधेरों तथा वनों का संरक्षण सामूहिक श्रमदान के माध्यम से किया जाता रहा है। देवभूमि उत्तराखण्ड में जल केवल दैनिक आवश्यकतों को पूर्ण करने का साधन मात्र नहीं है बल्कि जल में साक्षात् भगवान विष्णु का वास माना गया है। आत्मा को परमात्मा से जोड़ने का साधन मानते हुए जल सदैव वन्दनीय, पूजनीय, संरक्षणीय तथा पुनः सम्भरणीय रहा है। यही कारण है कि, उत्तराखण्ड की लोकसंस्कृति जलपूजक संस्कृति रही है। खाल-चालों का निर्माण हो या रख-रखाव तथा धारा, नौलों का संरक्षण एवं पुनः सम्भरण हो या पौधरोपण, वृक्षसंरक्षण सभी कार्य यहां सामूहिक श्रमदान के माध्यम से सम्पन्न किये जाते रहे हैं। भले ही वर्तमान समय में आधुनिकता ने हमारी सामूहिकता तथा सामुदायिकता को समाप्त करने का प्रयास किया है परन्तु अभी भी कुछ अंश शेष रह गये हैं। इन अंशों को समेटते हुए पहाड़ की संस्कृति संरक्षण के लिए कार्य किये जाने की व्यापक रूप से आवश्यकता है।
खाल-चाल
उत्तराखंड में पारम्परिक रूप से बरसात के पानी को रोकने के लिए बनाए तालाबों को खाल-चाल कहते हैं, आमतौर पर दो पहाड़ियों के बीच का ढलान जिस स्थान पर आकर मिलता है उस स्थान को स्थानीय भाषा में खाल कहा जाता है। बरसात के समय दोनों पहाड़ों के ढलान मिलने के कारण ऐसी जगहों पर पानी का बहाव अधिक होता है। इसलिए पूर्व में ऐसे स्थानों पर सामूहिक श्रमदान के माध्यम से खाल-चालों का निर्माण किया गया। ये खाल-चाल कम से कम दस से पंद्रह मीटर लम्बे-चौड़े और एक दो मीटर गहरे होते थे तथा इनकी जल भण्डारण क्षमता चालीस से पचास हजार लीटर के समकक्ष होती थी। इन खाल-चालों से हमारे पालतु पशु तथा वन्य जीव भी अपनी प्यास बुझाते थे। चाल-खाल से भूमि के कटाव में भी कमी आती है। चाल-खाल में रूका हुआ वर्षा जल धीरे-धीरे रिस कर भूगर्भीय जल संसाधनों को रिचार्ज करता है, और आस पास के नौला, धारा, झरनों को भी नवजीवन प्रदान करता है।
परम्परागत रूप से खाल-चालों का रख-रखाव कर इन्हें स्वच्छ और सुन्दर बनाने के लिए पहले निरन्तर प्रयास किया जाता था तथा नियमित अंतराल पर इनके तल पर जमी गाद को साफ किया जाता जिससे भूमिगत जल के स्रोत बने रहें और इन खाल-चालों में जमा पानी स्वच्छ व निर्मल रहे, बारिश के पानी को छोटे व बड़े तालाबों में एकत्र करने की परिपाटी का प्रचलन पहाड़ के प्रत्येक गांव की लोकनीति में शामिल था। यह कार्य ग्रामीणों द्वारा पूर्णरूप से श्रमदान के माध्यम से संचालित किया जाता था तथा इसमें प्रत्येक ग्रामवासी की भूमिका निश्चित होती थी।
ब्रिटिश काल में भी खाल-चालों का रख-रखाव स्थानीय स्तर पर ही होता रहा परन्तु जंगलों का नियत्रंण अंग्रेज सरकार द्वारा अपने हाथों में लेने के कारण धीरे-धीरे व्यवस्था में क्षरण होने लगा था। देश के स्वतंत्र होने के बाद केन्द्र तथा राज्य सरकार ने व्यवस्था को अपने हाथों में ले लिया तो न नये खाल-चाल बने और न ही पुराने जल स्रातों की जर्ज़र होती दशा को सुधारने का प्रयास किया गया बल्कि सरकारी धन को ठिकाने लगाने के लिए तिकड़म भिड़ाये गये जिसके परिणाम स्वरूप ग्रामस्तर पर बनी जल संरक्षण लोकनीति नेपथ्य में चली गयी। आज भी उत्तराखण्ड के कुछ गांवों में खाल-चाल को पुनर्जीवित करने तथा धारा, नौला को बचाये रखने की पहल स्थानीय स्तर पर ही हो रही है। दरअसल उत्तराखण्ड की जल संरक्षण की लोकनीति को सरकारी तंत्र समझने में पूर्णरूप से विफल रहा है। जिसके परिणाम स्वरूप यह लोकनीति विलुप्त होने के कगार पर है।
पहाडों में भू-जल के रिचार्ज होने का बेहतर स्रोत चाल-खाल तथा जलतैलया ही हैं। खाल-चालों को संरक्षित वन क्षेत्रों में भी पुनर्जीवित किया जाना चाहिए। यदि पहाड़ो में खाल-चाल की लोकनीति को पुनः जीवित किया जाता है तो भू-जल भी रिचार्ज होगा तथा पहाड़ों में हर साल जंगलों में लगने वाली आग पर भी नियत्रंण किया जा सकता है। अब यह आग समस्या बनती जा रही है जिसे बुझाने के लिए समीप में पानी का अभाव इसे दावानल बनाते देर नहीं लगाता। पहाडों में पुनः खाल-चालो को पुनर्जीवित करने से वनाग्नि के नियंत्रण में भी मदद मिलेगी तथा जल अभाव की पूर्ति भी होगी।
उत्तराखण्ड में जल उपयोग की परम्परा बहुत समृद्ध रही है। इस परम्परा का वैज्ञानिक आधार है। समृद्ध वन सम्पदा वाले क्षेत्रों में एक गांव या एक तोक में चार पांच खाल-चाल अक्सर हुआ करते थे। साथ ही ग्रामीणों द्वारा जंगलों में भी बारिश के पानी को संचित रखने के लिए गड्ढे बनाए जाते थे, जो कि, पशु पक्षियों के पीने के पानी की जरुरत को पूरा करने के साथ गांव से लगे क्षेत्रों में पर्याप्त नमी व फर्न तथा सिमार जैसी जल जनित वनस्पतियों की प्रचुरता को बनाए रखते थे। अभी भी उत्तराखण्ड में हजार से ज्यादा छोटी-बड़ी नदियाँ व गाड-गधेरे हैं, वर्षा भी सामान्यतः पर्याप्त होती है पर इसके बावजूद कई स्थान ऐसे हैं जहां पीने के पानी की कमी बनी रहती है।
पहाड़ों में सरकारी नीतियों ने विसंगतियां पैदा कर जल के अभाव, बाढ़ तथा भूस्खलन को जन्म दिया है। पानी की लाइनें सुदूर तक बिछ चुकी हैं और तमाम योजनाओं के साथ स्वज़ल, हर घर नल, हर घर जल जैसी योजनाऐं संचालित हो रही हैं परन्तु उनके मूल जलस्रोत में पानी का अभाव है। पानी के बंटवारे में भी तमाम विसंगतियां पैदा हो चुकी हैं। एक ओर बाढ़ तथा भूस्खलन ने समस्या को विकराल कर दिया है तो दूसरी ओर जल का अभाव बना हुआ है।
जंगलों में पाबंदी और घर-घर नल की सुविधा के चलते परंपरागत जलस्रोत के रखरखाव पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। चाल-खालों में मिट्टी व दूषित अपशिष्ट का जमाव व भराव होने से ये सूखते चले गए। चाल-खाल के सिमट जाने से भू-जल के लगातार रिचार्ज होने की प्रक्रिया भी थम गई। चाल-खाल का प्राकृतिक स्त्रोतों से सीधा जुड़ाव था जिनके अवरुद्ध होने से बड़ी संख्या में नौले तथा धारे भी निष्क्रिय हो गए। उत्तराखण्ड के वह क्षेत्र जहां प्राकृतिक जल स्रोत बचे हैं उसका कारण यह है कि उनके रिचार्ज होने के भूमिगत स्रोत किसी छेड़छाड़ से बचे रहे हैं। वर्षा जल का संरक्षण न होने का असर पहाड़ की ऐसी छोटी नदियों व गाड-गधेरों पर बहुत अधिक पड़ा जो हिमनद से नहीं निकलती हैं। इनके या तो कम जल वाले प्राकृतिक स्रोत हैं और या फिर ये बरसाती नदियाँ हैं जैसे देहरादून की रिस्पना तथा बिन्दाल जो बहुत तेजी से विकसित होते शहर में लुप्तप्राय ही हो गई है। नदी सूखने के कगार पर आने के साथ कचड़े का ढेर बन गई. हिमालयी राज्य में कई छोटी-बड़े नाले, नदियां और नहरें भी सारा कूड़ा-करकट लादे इसी नियति पर पहुँच गई हैं। इन्हें रिचार्ज करने या इनमें पानी का बहाव बनाए रखने के लिए चैक डैम, नाला बंध, गधेरा बंध जैसे उपाय तो छोड़िये जल प्रवाह को नियमित रखने के लिए जो नालियाँ बनी थीं उनपर भी अतिक्रमण कर पानी के रास्ते ही बंद कर दिए गये हैं। यही दशा छोटे तालाबों व चाल-खाल की हुई जो सब धीरे-धीरे अतिक्रमण का शिकार हुए। इसका बड़ा खामियाज़ा तब भुगतना पड़ता है जब अति वृष्टि के बाद पूरा शहर, पूरी बसावट, आवागमन की सड़कें, घर, मकान, दुकान, कार्यालय जलमग्न होने लगते हैं।
बर्षा जल
जल सम्पदा के मामले में देश सम्पन्न रहा है। देश में हर साल औसत वर्षा लगभग 1,170 मिमी. के आसपास रहता है, जिसमें सबसे अधिक 11,400 मिमी. वर्षा देश के उत्तर-पूर्वी कोने चेरापूंजी में होती है। वहीं सबसे कम 210 मिमी. राजस्थान के पश्चिमी किनारे जैसलमेर में होती है। जल की समृद्ध विरासत होने के बाद भी देश में जल संकट बढ़ता ही जा रहा है। सालाना होने वाली बारिश के पानी के एक चौथाई भाग का भी देश में सदुपयोग नहीं हो पा रहा है। अब जलवायु परिवर्तन के आसन्न संकटों के खतरे भी बढ़ गए हैं।
उत्तराखण्ड में औसतन हर साल लगभग 1500 मिमी बर्षा होती है, इसका तीन चौथाई बारिश अमूमन मानसूनी मौसम में होती है। कई ऐसे क्षेत्र भी हैं जहां किसी भी ऋतु में बादल बरस पड़ते हैं और मौसम को अनुकूल बना जाते हैं परन्तु प्रायः होने वाली बारिश का पानी यूँ ही गाड़-गधेरों, नदी-नालों में बह जाता है। यदि इस जल को खाल-चालों में समेटा जाये तो व्यर्थ बहते पानी का उपयोग बेहतर जल प्रबन्धन से किया जा सकता है।
स्टेट ऑफ़ इनवायरनमेंट की रिपोर्ट के अनुसार संरक्षण के अभाव में प्रदेश में लगभग 12,000 प्राकृतिक स्रोत सूख चुके हैं। विकास नीतियों में अन्धाधुन्धु निर्माण को ही विकास का आधार माना गया विसके कारण निमार्ण योजनाओं पर अधिक ध्यान दिया गया। पानी का दोहन तो बढ़ गया परन्तु उसके संरक्षण पर ध्यान नहीं दिया गया जिसके कारण छोटे तथा प्राकृतिक जलधाराऐं एवं नौला व सदानीरा रहने वाले स्रोत उपेक्षित होते चले गये। यही हाल नहर व गूलों का है जिनमें पानी की कमी अक्सर बनी रहती है। उत्तराखण्ड में यदि होने वाली वर्षा का दस प्रतिशत भी संरक्षित कर लिया जाये तो निजी जरूरतों के साथ सिंचाई व अन्य उपक्रमों के लिए पानी की कमी न पड़े।
धारा-नौले
नौला - यह उत्तराखण्ड की पहाड़ी भाषा का शब्द है, जिसका सीधा सम्बन्ध नाभि से हैं अर्थात जैसे नाभि नल से नवजात शिशु को गर्भाशय में पोषण मिलता हैं उसी प्रकार से नौला के पानी के जरिये माँ धरती हमको पोषित करती हैं । नौला का निर्माण एक विशिष्ट वास्तु-विधान के अन्तर्गत किया जाता था। नौलों की आवश्यकता मनुष्य को तब महसूस हुई जब पहाड़ी और ऊंचाई वाले क्षेत्रों में नदियां तो निचली धारा में बहती है और धारा रूप प्रवाह भी हर जगह मिलना मुश्किल होता था। किसी-किसी स्थान पर पानी बहुत कम मात्रा में निकलता था। ऐसे में उस पानी को नौले के रूप में इकट्ठा करने की आवश्यकता हुई।
प्राचीन काल में मानव अपनी जल की आवश्यकता को या तो नदियों से पूरा किया करते थे या फिर किसी पास वाले जलस्रोत धारा के रूप में बहने वाला जल को अपने उपयोग में लाया करते थे। इसके अतिरिक्त वर्षा का जल भी कहीं-कहीं एकत्र करके उपयोग में लाया जाता था।
आरम्भकाल में जल एकत्रीकरण के लिए जमीन को खोदकर गड्ढेनुमा आकार बनाया गया। बाद में उसी पानी को पीने, नहाने, कपड़े धोने व जानवरों को पिलाने के लिए उपयोग किया गया। मानव का भी निरन्तर विकास होने के कारण खुले गड्ढों का पानी उतना साफ नहीं रहने लगा। पानी भरते समय जल में कम्पन के कारण मिट्टी भी पानी के साथ मिल जाता तथा खुले होने के कारण आस-पास का कूड़ा-करकट भी उसमें चला जाता। जंगली पशु-पक्षी भी पानी को गंदा कर देते थे। इन्हीं गड्ढों के चारों ओर पत्थर लगाये गये तथा फर्श पर भी पत्थर लगाये गये दीवारें खड़ी करके छत भी पत्थरों द्वारा बना दी गयी यहीं जल मंदिर नौला कहलाये।
नौलों का निर्माण भूमिगत पानी के रास्ते पर गड्डा बनाकर उसके चारों ओर से सीढ़ीदार चिनाई करके किया जाता था। इन नौलों का आकार वर्गाकार होता है और इनमें छत होती है तथा कई नौलों में दरवाजे भी बने होते हैं। जिन्हें बेहद कलात्मक ढंग से बनाया जाता था। इन नौलों की बाहरी दीवारों में देवी-देवताओं के सुंदर चित्र भी बने रहते हैं। ये नौले आज भी स्थापत्य एवं वास्तुशिल्प का बेजोड़ नमूना हैं। नौलों का भूमिगत जलस्रोत अत्यन्त संवेदनशील जल नाड़ियों से संचालित रहता है। इसलिए विकासपरक गतिविधियों तथा समय-समय पर होने वाले भूकम्पीय झटकों से इन नौलों के जलप्रवाह जब बाधित हो जाते हैं तब ये नौले भी सूखने लगते हैं।
स्थानीय पहाड़ी जन-जीवन में धारा-नौलों को वहीं महत्व दिया जाता था जो देवालयों को दिया जाता है। देवालयों के वास्तु के अनुरूप ही इनका निर्माण भी विशिष्ट वास्तु विधान के अन्तर्गत किया जाता था। भारतीय संस्कृति में तथा हमारे वेदों में जल को विष्णु स्वरूप समझा जाता है। गंगा, यमुना, सरस्वती, नर्मदा, कावेरी आदि नदियों की तरह ही भगवान श्री विष्णु को समर्पित धारा-नौला बहुत पवित्र स्थल समझे जाते थे। लोग इन जल मंदिरों (धारा-नौलों) में जल देव की पूजा किया करते थे। यह लोक जीवन का अभिन्न हिस्सा होता था।
नौलों के पास बने मंदिर व उनके अन्दर पत्थरों पर अनेक स्थानों पर भगवान विष्णु की आकृति उकेरी जाती थी। इनकी पवित्रता को अक्षुण्य रखने के लिए जलदेवता के रूप में शेषशायी विष्णुनारायण की प्रतिमाओं को तो प्रमुखता से स्थान दिया गया है कुछ में इन्हें खड़ी मुद्राओं में भी दिखाया गया है तो कुछ में इन्हें लेटी मुद्राओं में भी दिखाया गया है। कहीं-कहीं सूर्य की रथिकाओं में स्थापित किए गये हैं। कुछ नौले तो आकर्षक सूर्य प्रतिमाओं से सुसज्जित हैं। अनेक स्थानों पर स्तम्भों पर शस्त्र लिए द्वारपाल, अश्वरोही, नृत्यांगनाएं, मंगलघट, कलशधारिणी गंगा-यमुना तथा सर्प, पक्षी की आकृतियों का प्रचुरता से प्रयोग हुआ है। प्रवेश द्वारों के स्तम्भों को अल्पना से भी सुसज्जित करने की परम्परा भी प्रचलित थी। स्यूनराकोट अल्मोड़ा के नौले में वीणावादिनी सरस्वती, दशावतार एवं महाभारत के दृश्य उल्लेखनीय है। धारा-नौलों के आस-पास सिलिंग, पीपल, बड़ जैसे दीर्घजीवी धार्मिक दृष्टि से पवित्र माने जाने वाले वृक्ष लगाये जाते थे।
वराहमिहिर के जल विज्ञान से प्रेरणा लेकर उत्तराखण्ड में धारा, नौले के चारों ओर विभिन्न प्रकार के वृक्षों का रोपित कर संरक्षित करन की समृद्ध परम्परा रही है। जिनमें बांज, बुरांस, उतीस, आंवला, बड़, खड़िक, शिलिंग, पीपल, बरगद, तिमला, दुधिला, पदम या पैंय्या, आमला, शहतूत आदि के वृक्ष विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इन वृक्षों की सहायता से नौलों में भूमिगत जल नाड़ियां सक्रिय होकर द्रुतगति से जल को रिचार्ज करती रहती हैं।
गढ़वाल-कुमाऊं ही नहीं बल्कि हिमाचल प्रदेश और नेपाल में भी जल आपूर्ति के परम्परागत प्रमुख साधन धारा-नौले ही रहे हैं। ये धारा-नौले हिमालयवासियों की समृद्ध-जलप्रबन्धन परम्परा और लोकसंस्कृति के प्रतीक हैं। कभी अल्मोड़ा नगर में, जिसे चंद राजाओं ने 1563 में राजधानी के रूप में बसाया था, वहां परम्परागत जल प्रबन्धन के मुख्य स्रोत वहां के 360 नौले ही थे। इन नौलों में चम्पानौला, घासनौला, मल्ला नौला, कपीना नौला, सुनारी नौला, उमापति का नौला, बालेश्वर नौला, बाड़ी नौला, नयाल खोला नौला, खजांची नौला, हाथी नौला, डोबा नौला, दुगालखोला नौला, धारानौला आदि प्रमुख हैं। बागेश्वर जिले के गडसर गांव में स्थित बद्रीनाथ का नौला है, जो कि, उत्तराखंड में अब तक का सबसे प्राचीन नौला माना जाता है। कत्यूरी वंश के राजाओं ने 7वीं शताब्दी में इस नौले का निर्माण करवाया था। जल विज्ञान के सिद्धांतों के आधार पर बना होने के कारण यह नौला आज भी जल से भरपूर रहता है। चम्पावत-मायावती पैदल मार्ग पर ढकन्ना गांव में स्थित ‘एकहथिया नौला’ भी एक सांस्कृतिक महत्त्व का नौला है। इस नौले की दीवारों में ऊपर से नीचे तक अनेक देव आकृतियां अंकित हैं।
एकहथिया नौला’ कुमाऊं की प्राचीन स्थापत्य कला का एक अनुपम उदाहरण है। लोगों का विश्वास है कि इस नौले का निर्माण एक हाथ वाले शिल्पी ने किया था। इसके अलावा अल्मोड़े का पंथ्यूरा नौला, रानीधारा नौला, तुलारामेश्वर नौला, द्वाराहाट का जोशी नौला, गंगोलीहाट का जाहन्वी नौला, डीडीहाट का छनपाटी नौला आदि अनेक प्राचीन नौले भी अपनी अद्भुत कलाकारी के बेजोड़ नमूना हैं। अल्मोड़ा के निकट 14-15वीं शताब्दी के लगभग निर्मित स्यूनारकोट का नौला आज भी मौजूद है। बावड़ी के चारों ओर बरामदा है, जिसमें प्रस्तर प्रतिमाएं लगी हुई हैं। मुख्य द्वार के सामने दो नक्काशीदार स्तम्भ बने हुए हैं। बावड़ी की छत कलात्मक रूप से विचित्र है। इसकी दीवारों में देवताओं और उनके उपासकों के चित्र अंकित हैं। यह अल्मोड़ा जनपद का सबसे प्राचीन एवं कला की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ नौला माना जाता है। गढ़वाल में भी टिहरी नरेशों द्वारा धारा-नौलों और कुंडों का निर्माण किया गया था। गढ़वाल के प्रसिद्ध नौलों, धारों और कुंडों में रुद्रप्रयाग जिले में गुप्तकाशी स्थित ‘गंगा-यमुना धारा’ तथा नारायणकोटि स्थित ‘नवग्रह मंदिर धारा’ और ‘बहकुंड’ (ब्रह्मकुंड) स्थापत्य कला का बेजोड़ नमूना हैं। लेकिन अपनी स्थापना के लगभग पांच शताब्दियों के बाद अल्मोड़ा के अधिकांश नौले लुप्त हो कर इतिहास की धरोहर बन चुके हैं और इनमें से कुछ नौले भूमिगत जलस्रोत के क्षीण होने के कारण आज अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं।
उत्तराखण्ड के ग्रामीण जीवन में धारा-नौला को बहुत महत्वपूर्ण माना जाता था। धारा-नौला यहां के लोकजीवन में रचा-बसा था तथा इसे यहां के लोकजीवन में लोक संस्कारों के साथ अनिवार्य रूप से शामिल किया गया था। बिना इसके लोक संस्कार पूर्ण नहीं माने जाते थे। यहां के लोक जीवन में आज भी जब विवाह के उपरान्त नव वधु अपने ससुराल में आती है तो सर्वप्रथम उसे स्थानीय धारा या नौला पूजन के लिए भेजा जाता है। धारा या नौला पूजन उत्तराखण्ड की सांस्कृतिक परम्परा का एक लौकिक अनुष्ठान है। इसमें विवाह संस्कार सम्पन्न हो जाने के बाद जब नवविवाहिता वधू अपने ससुराल पहुंचती है तो वह उस दिन या दूसरे दिन प्रातः अपने ससुराल के गांव की कन्याओं और कुछ सौभाग्यवती महिलाओं के साथ अपने गांव के जलाशय-नौला या धारा के पास जाकर रोली, अक्षत, पुष्प से उसका पूजन करती है तथा घर लौटते समय एक जलपात्र में वहां से पानी भरकर उसे अपने सिर पर रखकर घर लाती है और उसे घर के सभी बड़ों तथा परिवार के इष्ट मित्रों को पिलाती है तथा उनसे चिर सौभाग्य का आशीर्वाद प्राप्त करती है। इस धारा या नौला पूजन अनुष्ठान को उत्तराखंड के सभी भागों में अनुपालन किया जाता है।
जल संकट की वर्त्तमान परिस्थितियों में आज भूमिगत जलविज्ञान की इस महत्त्वपूर्ण धरोहर को न केवल सुरक्षित रखा जाना चाहिए बल्कि इनके निर्माण तकनीक के संरक्षण तथा पुनरुद्धार की भी बहुत आवश्यकता है। दरअसल धारा-नौले उत्तराखंड की ग्राम संस्कृति तथा लोकसंस्कृति के अभिन्न अंग रहे हैं। लेकिन हममें से बहुत से लोग ऐसे हैं जो धारा-नौलों के बारे में ज्यादा कुछ नहीं जानते खासकर नई पीढ़ी के युवावर्ग को इनके बारे में कम ही जानकारी है। जल वितरण की नई व्यवस्था हर घर जल, हर घर नल के कारण इन धारा-नौलों का प्रचलन अब भले ही बंद हो गया है किन्तु जल संकट के समाधान की दृष्टि से इन पुराने धारा-नौलों की उपादेयता आज भी बनी हुई है।
उत्तराखण्ड हिमालय में अन्धाधुन्ध विकास के नाम पर निर्माण एवं कंकरीट की सड़कें बनने के कारण भी अधिकांश धारा-नौले जलविहीन होने से सूख चुके हैं या अन्तिम सांसे गिन रहे हैं। एक सर्वेक्षण के अनुसार नौलों के लिए प्रसिद्ध कुमांऊ के द्वाराहाट स्थित अधिकांश नौले इसी आधुनिक विकास की भेंट चढ़ने के कारण सूख चुके हैं।
दरअसल, उत्तराखण्डवासियों के लिए धारा-नौले जल आपूर्ति के साधन मात्र ही नहीं हैं बल्कि आध्यत्मिक, धार्मिक, सांस्कृतिक तथा सामाजिक रूप में भी इनका विशेष महत्व है। इन धारा-नौलों के रूप में यहां का लोकजीवन भी बसा हुआ है। इन धारा-नौलों के माध्यम से उत्तराखण्ड में प्रचलित अत्यन्त उत्कृष्ट स्तर की स्थापत्य कला और वास्तुकला का दर्शन होता है। भारतीय परम्परा के अनुसार जलाशय के निकट ही देवमन्दिर तथा देव प्रतिमाओं का निर्माण किया जाता है ताकि इन जल निकायों की शुद्धता और पवित्रता बनी रहे और भारतीय परम्परा में जल को ईश्वर तुल्य आस्था भाव प्राप्त है तथा आस्था को जल संरक्षण से जोड़कर धारा-नौलों के माध्यम से मूर्त रूप दिया जा सके।
परन्तु विडम्बना ही कही जायेगी कि, उत्तराखंड के परम्परागत सामाजिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक धरोहर स्वरूप अधिकांश ये धारा-नौले समुचित रख-रखाव न होने के कारण आज जलविहीन हो रहे हैं या हो चुके हैं। इन धारा-नौलों के माध्यम से आविर्भूत पुरातात्त्विक और सांस्कृतिक वैभव भी हमारी लापरवाही तथा उदासीनता के कारण नष्ट होने के कगार पर है। पुरातत्व विभाग की उदासीनता के कारण भी धारा-नौलों की पुरातन जल संस्कृति आज बदहाली की स्थिति में है। ऐतिहासिक धरोहर स्वरूप इन नौलों की रक्षा करना और इन्हें संरक्षण देना क्षेत्रीय जनता और उत्तराखण्ड सरकार दोनों का साझा दायित्व है। दरअसल, धारा-नौलों और गाड-गधेरों के जलस्रोतों के साथ हमारे उत्तराखण्ड की लोक संस्कृति और लोक साहित्य के गहरे आध्यात्मिक, लोकसंस्कार तथा सांस्कृतिक स्रोत भी जुड़े हुए हैं।
वर्तमान हालात में जलधाराओं तथा नौला के सूखने का मतलब है एक जीवंत पर्वतीय जल संस्कृति का लुप्त हो जाना। इसलिए जल की समस्या मात्र प्यास बुझाने तथा उपभोग तक सीमित नहीं है बल्कि जल, जंगल तथा जमीन के संरक्षण से जुड़ी एक पर्यावरणवादी वैष्विक समस्या है। इस जटिल समस्या का निदान हुए बिना हमारी पहचान तथा मानव जाति सहित समस्त प्राणी समुदाय के अस्तित्व का संकट भी है। यदि हम अपनी देवभूमि को पुनः देवत्व से जोड़ना चाहते हैं तो हमें अपने पुराने नौलों, धारों, खालों, चालों, तालों आदि जलसंचयन के संसाधनों को पुनर्जीवित करना होगा। पारम्परिक जल-स्रोत नोले, धारे ,चाल, खाल बचाने की मुहिम जलसंचेतना की दिशा में अपने कदम तेज करने होगें। आज आवश्यकता है चीड़ प्रजाति का स्थान को सीमित करते हुए उसके स्थान पर स्थानीय वनस्पति के मिश्रित प्रजाति के चौड़ी पत्तियों वाले बाँज, बुरांश, उतीस, आदि वृक्षों को लगाए जाए ताकि भूमिगत जल रिचार्ज हो सके।
वैज्ञानिक सर्वेक्षण
नीति आयोग की रिर्पोट में बताया गया है कि देश में 50 लाख प्राकृतिक जलस्रोत हैं जिनमें से 30 लाख जलधाराऐं हिमालय श्रृंखला में विद्यमान हैं। अकेले उत्तराखंड 2 लाख 60 हजार धारा-नौले, जल प्रपात, चाल-खाल, तालाब, झील विद्यमान हैं। इन प्राकृतिक जलस्रोतों को संरक्षित रखना जरुरी है क्योंकि नियोजित विकास की कारगुजारियों से इनमें से दो तिहाई नष्ट होने की कगार में हैं। उत्तराखंड में बारह लाख पैंतालीस हजार से अधिक ऐसे घर हैं जिनमें पीने के पानी की सुविधा वाले नल नहीं हैं। जहां पानी के नल हैं वहां पानी नदी, झील, तालाब व प्राकृतिक स्रोतों पर आधारित पेयजल योजनाओं से आता है। यदि घर के नल में पानी की सप्लाई को नियमित रखना है तो इन प्राकृतिक जल स्रोतों को सहेजने की आवश्यकता है।
उत्तराखण्ड से सम्बन्धित एक जलवैज्ञानिक सर्वेक्षण के अनुसार उत्तराखण्ड हिमालय में जलवैज्ञानिक पारिस्थिकी को प्रभावित करने वाले निकायों में इस समय 8 जल-प्रस्रवण संस्थान (कैचमैंट), 26 जलविभाजक संस्थान (वाटर शैड), 116 उप जल- विभाजक संस्थान (सब-वाटर शैड), 11,120 सूक्ष्मजल विभाजक संस्थान (माइक्रो-वाटरशैड) सक्रिय हैं। वनों की अंधाधुन्ध कटाई तथा पक्की सड़कों के निर्माण के कारण उत्तराखण्ड के पारम्परिक जलस्रोत आज सूखते जा रहे हैं। कुमाऊँ विश्वविद्यालय के अल्मोड़ा परिसर में डॉ. जे.एस.रावत के द्वारा उत्तराखण्ड में किए गए जलस्रोत सम्बन्धी अध्ययन से ज्ञात हुआ है कि, ऊपरी ढलानों के जंगलों में वर्षा के द्वारा भूमिगत जल में 31 प्रतिशत की वृद्धि होती है। बांज के जंगलों से भूजल संग्रहण में 23 प्रतिशत, चीड से 16 प्रतिशत, खेतों की हरियाली से 13 प्रतिशत, बंजर भूमि से 5 प्रतिशत और शहरी भूमि से केवल 2 प्रतिशत मात्र ही भूमिगत जल की वृद्धि हो पाती है, डॉ.रावत की सिफारिश है कि उत्तराखण्ड क्षेत्र में भूमिगत जल की वृद्धि हेतु पर्वत के शिखर से ढलान की तरफ 1000 से 1500 मीटर तक सघन रूप से मिश्रित वनों का बढ़ावा दिया जाना चाहिए। मिश्रित वन की प्रजाति के वनों से ही यहां के भूजल को रिचार्ज किया जा सकता है। मिश्रित वनों को बढ़ावा देने से यहां की स्थानीय जैव-विविधता को भी बचाया जा सकता है।
डॉ. के.एस.बल्दिया और एस.के.बर्तया के उत्तराखण्ड के जलस्रोतों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि परम्परागत जलस्रोतों में पानी की कमी होने का मुख्य कारण जंगलों का कटान है। इसी सन्दर्भ में 1952-53 और 1984-85 के मध्य जलागम क्षेत्र के जंगलों में 69.6 प्रतिशत से 56.8 प्रतिशत तक की गिरावट दर्ज की गई. इससे भी महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि 1956 से 1986 के मध्य जलागम क्षेत्र भीमताल में वर्षा में 33 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई परन्तु स्रोतों के पानी में 25 से 75 प्रतिशत की कमी देखी गई जिसके कारण क्षेत्र के 40 प्रतिशत गांव जलापूर्ति की दृष्टि से प्रभावित हुए तथा कुछ स्रोत तो पूरी तरह से सूख गए।
सन्दर्भ
1. ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद एवं मनुस्मृति
2. इंडिया वाटर पोर्टल, काफल ट्री, हिमान्तर एवं जल से सम्बन्धित अन्य वेबसाइड
3. भारत सरकार के जल शक्ति मंत्रालय तथा नीति आयोग द्वारा समय-समय पर जल संरक्षण के लिए प्रकाशित सामाग्री
4. तरूण भारत संद्य, अलवर(राजस्थान) के द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘जल संस्कृति’
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