Devalution of the Rupees
रूपये का अवमूल्यन
रूपये का अवमूल्यन

राकेश कुमार लखेड़ा

किसी भी देश के विकास का आधार होती है, उस देश की अर्थव्यवस्था, अर्थव्यवस्था में तरलता का गुण होता है अर्थात यह परिवर्तनशील है। किसी भी देश की अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने वाले कई कारक होते हैं। इनमें से एक है रूपये का अवमूल्यन।
किसी देश के द्वारा मुद्रा की विनिमय दर अन्य देश/देशों की तुलना में जानबूझकर कम कर दी जाए ताकि विदेशी निवेश को बढाया जा सके तो इसे अवमूल्यन कहा जाता है। अवमूल्यन की प्रक्रिया में घरेलू मुद्रा के बाह्य मूल्य में परिवर्तन हो जाता है। जब कि आंतरिक मूल्य स्थिर रहता है।
एक वस्तु के बदले में दूसरी वस्तु को लेना या देना ‘‘ विनिमय‘‘ कहलाता है। जब किसी देश की मुद्रा के मूल्य की तुलना अन्य देशों की मुद्रा के मूल्य से की जाती है, तो इसे ‘‘विनिमय दर‘‘ कहा जाता है। प्राचीन काल में सोने की मुद्रा या अन्य धातुओं की मुद्रा चलन में थी परन्तु आज के समय में राष्ट्रों की सरकारें अपने नियंत्रण (राजकोष) में सोना रख लेती हैं और जनता को कागज की करेंसी थमा देती हैं। शर्त यह होती है कि जितने मूल्य के नोट बाजार में चलन में होते हैं। उतने ही मूल्य का सोना सरकार के पास होना चाहिए। कभी-कभी सरकार घाटे की अर्थव्यवस्था लाकर ज्यादा नोट छाप देती है। ऐसी स्थिति में जनता के पास नोट ज्यादा हो जाते हैं। इस कारण सरकार की देनदारी बढ जाती है और सरकार के कंगाल होने का खतरा बढ जाता है। यह स्थिति बाजार में नकली नोटों के चलन से भी उत्पन्न होती है। अतः कंगाली से बचने के लिए सरकार कागजी नोट की कीमत कम कर देती है। इसे रूपये का अवमूल्यन कहा जाता है।
अमेरिका की करेंसी, डालर को ‘वैश्विक करेंसी‘‘ माना गया है। क्योंकि विश्व के ज्यादातर देश अतंर्राष्ट्रीय कारोबार में डॉलर का प्रयोग करते है। अतः डॉलर का महत्व बढ जाता है। अवमूल्यन को इस उदाहरण की सहायता से सरलता से समझा जा सकता है। माना आज एक डालर की कीमत 74 रूपये है। अगर भारत सरकार अपना ‘‘निर्यात‘‘ (दूसरे देशों को सामान बेचना) बढाना चाहे तो भारत सरकार अवमूल्यन का सहारा ले सकती है। माना सरकार रूपए का अवमूल्यन करके 90 रूपए एक डॉलर के बराबर कर देती है। तो जहाँ पहले अमेरिका एक डॉलर में 74 रूपए का सामान खरीद पाता था। अब वह 90 रूपए का सामान खरीद पाएगा। ऐसी स्थिति में अमेरिका हमसे ज्यादा से ज्यादा माल खरीदना चाहेगा। परिणामस्वरूप हमारा निर्यात बढ जाएगा। यहीं दूसरी ओर पहले हम जो सामान 74 रूपए में अमेरिका से मंगाते थे, उसके लिए अब हमें 90 रूपए खर्च करने होंगे । जिस कारण हम अमेरिका से अब कम सामान खरीदेंगे। परिणामस्वरूप हमारा आयात (दूसरे देशों से सामान खरीदना) कम हो जाएगा। जिस कारण देश में डॉलर कम आएगा और विदेशी मुद्रा भण्डार कम हो
जाएगा।
जाएगा।
हमारे देश में अब तक कुल तीन बार रूपए का अवमूल्यन हुआ है। 15 अगस्त 1947 को जब हमारा देश स्वतंत्र हुआ था तो डॉलर और रूपया बराबर थे अर्थात 1 रूपया 1 डॉलर। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय भारत पर कोई विदेशी ऋण नहीं था परन्तु पूंजी निर्माण और अच्छी नीतियों के अभाव में भारतीय अर्थव्यवस्था कमजोर होने लगी। सितम्बर 1949 में एक डॉलर 4.75 रूपए के बराबर हो गया। यह भारत सरकार द्वारा पहली बार किया गया रूपए का अवमूल्यन था। 1949 के बाद लगातार भारतीय अर्थव्यवस्था नीचे गिरती गई । सरकार लगभग कंगाल हो चुकी थी। जिस कारण भारत सरकार 1950 व 1960 के दशकों में लगातार विदेशों से ऋण लेती रही। 1962 में भारत चीन युद्व, 1965 में भारत-पाकिस्तान युद्व और 1966 की राजनीतिक उथल-पुथल और भंयकर सूखे के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था एक बार फिर से चरमरा गई थी, मुद्रास्फीति बढ चुकी थी। सरकार बजट घाटे का सामना कर रही थी ओर बचत की दर नकारात्मक हो चुकी थी। ऐसे में सरकार को विदेशों से और कर्जा नहीं मिल सकता था। देश में प्रौद्योगिकी का नितान्त अभाव था। अतः प्रौद्योगिकी की प्राप्ति एवं उच्च मुद्रा स्फीति से निपटने के लिए और विदेशी व्यापार हेतु भारतीय अर्थव्यवस्था को खोलने के लिए सरकार ने 1966 में दूसरी बार रूपए के मूल्य में 36.5 प्रतिशत का अवमूल्यन किया। परिणामस्वरूप एक डॉलर - 7.10 रूपए के बराबर हो चुका था। 1966 के बाद उत्पन्न राजनीतिक अस्थिरता 1971 का भारत-पाकिस्तान युद्व, 1973 की तेल त्रासदी (जब अरब पेट्रोलियम निर्यातक देशों के संगठन ;व्।च्म्ब्द्ध ओपेक द्वारा कच्चे तेल के उत्पादन में कटौती की गई। जिस कारण तेल के आयात मूल्य में वृद्वि हुई और इस आयात मूल्य का भुगतान करने के लिए भारत को विदेशों से ऋण लेना पड़ा। इसी प्रकार 25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक आपातकाल के कारण उत्पन्न राजनीतिक अस्थिरता और 1984 में प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद भारतीय राजनीति में उत्पन्न अस्थिरता के कारण विदेशियों का भारतीय अर्थव्यवस्था में विश्वास कम हुआ। फलस्वरूप 1985 में एक डॉलर 12.34 रूपए और 1990 में 17.50 रूपए के बराबर हो गया।
इन सभी कारणों से 1991 में एक बार फिर से आर्थिक संकट खडा़ हो गया। यह भारतीय अर्थव्यवस्था का सबसे बड़ा संकट था। इस दौर में राजकोषीय घाटा, सकल घरेलू उत्पाद (जी0डी0पी0) का 7.8 प्रतिशत व्याज भुगतान, सरकार के कुल राजस्व संग्रह का 39 प्रतिशत, चालू खाता घाटा(ब्।क्), सकल घरेलू उत्पाद का 3.69 प्रतिशत और थोक मूल्य सूचकांक आधारित मुद्राफीति लगभग 14 प्रतिशत हो चुकी थी। ऐसी परिस्थितियों में भारत विदेशियों को भुगतान नहीं कर पा रहा था। जिस कारण विदेशी समुदाय द्वारा भारत को दिवालिया घोषित किए जाने का खतरा उत्पन्न हो गया था, इन सभी समस्याओं से निपटने के लिए भारत सरकार ने वर्ष 1991 में तीसरी बार रूपए का अवमूल्यन किया जिसके कारण एक डॉलर 24.58 रूपए का हो चुका था। अगर हम मुद्रा के अवमूल्यन के कारणों की बात करें तो अलग-अलग देशों में अलग-अलग हो सकते है। जैसे - निर्यात के मुकाबले आयात का बढना, पूँजी निर्माण की धीमी गति, सामाजिक व राजनीतिक अस्थिरता, भ्रष्टाचार, कालाबाजारी, भारी मात्रा में सोने का आयात, छण्च्ण्। , वैश्विक आर्थिक मंदी और निवेशकों के विश्वास में कमी, मुद्रा अवमूल्यन यद्यपि फौरी तौर पर अर्थव्यवस्था की मदद करता है, फिर भी अवमूल्यन के कुछ दुष्परिणाम तो होते ही हैं। जैसे- मंहगाई में वृद्वि, आयात मंहगा होना , विदेशों में पढाई मंहगी होना, कच्चे तेल की कीमतों में वृद्वि के फलस्वरूप खुदरा वस्तुओं के मूल्य में वृद्वि होना, आयातकों की बचत में कमी और मुद्रास्फीति में कमी।
इन सबके बावजूद भारत का ऋणों के वित्तपोषण के लिए विदेशी मुद्रा ऋण पर कम निर्भरता, अवमूल्यन के जोखिम को कम कर देता है। वर्ष 2016 में नोटबंदी से पहले भारत में एक ही नंबर के कई नोट चलन में थे। ऐसी स्थिति में सरकार ने रूपए का अवमूल्यन न करके सारा घाटा टैक्स चोरों के सिर पर डाल दिया क्योंकि यदि रूपए का पुनः अवमूल्यन किया जाता तो मंहगाई व गरीबी अत्यधिक बढ जाती। दरअसल अवमूल्यन तभी हानिकारक होता है जब इसके साथ-साथ चालू खाता घाटा, मुद्रा-स्फीति, राजकोषीय घाटा आदि नियंत्रण में न रहें। यह हानिकारक स्थिति 1991 में भारत में उत्पन्न हो गई थी। यद्यपि भारत की मुद्रा एक स्थापित मुद्रा है। तथापि मुद्रा का अवमूल्यन लोगों में अविश्वास की भावना को तो जन्म देता ही है।
रूपए के अवमूल्यन को समझने के बाद एक प्रश्न हमारे मस्तिष्क में उत्पन्न होता है कि भारत में रूपए का अवमूल्यन सिर्फ तीन बार ही किया गया है। अंतिम बार जब अवमूल्यन 1991 में किया गया था तो एक डॉलर 24.58 रूपए का था। परन्तु आज एक डॉलर रूपए के बराबर हो चुका है। यह कैसे हुआ? आप अक्सर सुनते होंगें कि रूपया डॉलर के मुकाबले 50 पैसे कमजोर हुआ या 38 पैसे मजबूत हुआ । तो रूपए के मूल्य में निरन्तर होने वाला यह परिवर्तन क्या अवमूल्यन है? नहीं यह कतई अवमूल्यन नहीं है। आइए इसे हम एक सरल उदाहरण की सहायता से समझते है।
हर देश के पास दूसरे देशों की मुद्रा का भण्डार होता है। जिसे लेन-देन (आयात-निर्यात) के लिए प्रयोग किया जाता है। यह कुछ हद तक आयात-निर्यात पर भी निर्भर करता है। अगर हम विदेशों से ज्यादा सामान खरीदते हैं और बेचते कम हैं, तो हमारा विदेशी मुद्रा भण्डार घट जाता है। इसके विपरीत यदि हम विदेशों से सामान कम खरीदते है और बेचते ज्यादा हैं तो विदेशी मुद्रा भण्डार बढ जाता है।
माना भारत अमेरिका से व्यापार करता है। अमेरिका के पास 74000 रूपए (भरतीय मुद्रा) और भारत के पास 1000 डॉलर (अमेरिकी मुद्रा) का विदेशी मुद्रा का भण्डार है । यदि आज डॉलर का भाव 74 रूपए है तो दोनों के पास बराबर रकम है। अब यदि हम अमेरिका से 7400 रूपए कीमत का कुछ सामान मंगाते हैं, तो हमें 100 डॉलर अमेरिका को देने होंगे। इसके उपरान्त हमारे विदेशी मुद्रा भण्डार में 900 डॉलर बचते है परन्तु अमेरिका के पास 100 डॉलर या 7400 रूपए बढकर कुल 81400 रूपए हो जाते है। अब अगर हम पुनः अमेरिका को 200 डॉलर का सामान बेचते हैं, तो अमेरिका को हमें 200 डॉलर देने होंगे और उसके पास कुल 900 डॉलर या 66600 रूपए शेष रह जाते हैं। परन्तु दूसरी ओर हमारे पास अब 1100 डॉलर या 81400 रूपए का विदेशी भण्डार हो जाता है। इस विदेशी मुद्रा भण्डार के आधार पर ही समय-समय पर रूपया डॉलर के मुकाबले कमजोर या मजबूत होता रहता है। हमारे पास डॉलर ज्यादा होंगें तो रूपया मजबूत होगा और जितने डॉलर कम होंगें रूपया उतना ही कमजोर होगा। अतः रूपए के गिरने के वर्तमान में प्रमुख कारण है- आयात में वृद्वि विशेषकर तेल, अमेरिका द्वारा ब्याज दरों में वृद्वि (ब्याज दर बढाए जाने से निवेशक अमेरिका की ओर आकर्षित हो रहे है।) अमेरिका चीन के बीच ट्रेडवार (व्यापार युद्व) आदि।
रूपया कमजोर होने के कारण विदेशी बाजारों में भारतीय वस्तुओं की कीमतें कम हो रही है। जब कि विदेशी सामान मंहगा हो रहा है। जिससे देश में मंहगाई बढ रही है। रूपया मजबूत करने के लिए हमें विदेशी मुद्रा भण्डार बढाना होगा? जिसके लिए हमें निर्यात को बढावा देना होगा, परन्तु आयात कम करना होगा और विदेशी निवेश को बढाने की जरूरत है। (लेखक स0अ0, रा0आ0प्रा0वि0 सुखरौ देवी,कोटद्वार हैं)
Bahut achhe se samjhane ka prayas kiya.
जवाब देंहटाएंVery knowledgable sir. Thanks for giving your time. Thoda sa short kiya ja sakta tha,kahin kahin language thodi tough thi. Overall good article.
Dr. M. hussain.