पितरों की तृप्ति के लिए पितृ पक्ष - TOURIST SANDESH

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बुधवार, 2 सितंबर 2020

पितरों की तृप्ति के लिए पितृ पक्ष

पितरों की तृप्ति के लिए पितृ पक्ष

भारतीय संस्कृति में जन्म लेने वाले प्रत्येक मानव पर तीन ऋणों से उऋण होने की कल्पना की गयी है। देव ऋण, ऋषि ऋण और पितृ ऋण। देवों की उपासना व अपने सत कर्मों से ही हम देव ऋण चुकाते हैं। ऋषियों की वंदना और समर्पण भाव से उनके पद का अनुसरण कर हम ऋषि ऋण से उऋण होते हैं। पितरों के प्रति श्रद्धा एवं समर्पण भाव रखने से पितृ ऋण से मुक्ति मिलती है। भारतीय संस्कृति में भाद्र मास की पूर्णमासी से अश्विन मास की आमावस्य तक 16 दिनों का पितृ पक्ष माना गया है। माना जाता है कि इस काल में हमारे पितृ धरती लोक पर आकर हमें आशीर्वाद प्रदान करते हैं। पितरों का आशीर्वाद लेने के लिए हमें पितरों के प्रति श्रद्धा भाव रखना पड़ता है तभी हम पितरों के आशीर्वाद के भागीदार बनते हैं। यदा वै श्रद्धधात्यथ मनुते नाश्रद्धधन्मनुते श्रद्धधदेव मनुते श्रद्धा त्वेव विजिज्ञासितव्येति। श्रद्धां भगवो विजिज्ञास इति।।छान्दोग्योपनिषद।।7।।19।।1।। (सनत्कुमार कहते है- जिस समय मनुष्य श्रद्धा करता है तभी वह मनन करता है, बिना श्रद्धा किये कोई मनन नहीं करता अपितु श्रद्धा करने वाला ही मनन करता है। अतः श्रद्धा की ही विशेष रूप से जिज्ञासा करनी चाहिए। नारद करते हैं भगवन्! मैं श्रद्धा के विज्ञान की इच्छा करता हूं।) उपरोक्त मंत्र से स्पष्ट है कि श्रद्धा के बिना मनन नहीं किया जा सकता और श्रद्धा के लिए मनन करना आवश्यक है। क्योंकि श्रद्धा से ही मनन होता है और मनन करने से ही श्रद्धा होती है। भारतीय संस्कृति में पितरों के प्रति श्रद्धा भाव को बनाये रखने के लिए श्राद्ध पक्ष की अवधारणा प्रस्तुत की गयी है। वास्तव में आज हम जो कुछ भी हैं पितरों के आशीर्वाद से ही सम्भव हो पाया है। इसीलिए हमारी संस्कृति में पितृ पक्ष को महत्व दिया गया है। यजुर्वेद में कहा गया है- नमों वः पितरो रसाय नमो वः पितरः शोषाय नमो वः पितरो जीवाय नमो वः पितरः स्वधायै नमौ वः पितरो घोराय नमो वः गृहान्न पितरो दत्त सतो वः पितरो देष्मैतद्वः पितरो वासऽ आधत्त।। यजुर्वेद।।2।।32।। (हे पितृगण! आपके रसरूप (वसंत), शुष्कता रूप (ग्रीष्म), जीवन रूप (वर्षा), अन्न रूप (शरद) पोषणरूप (हेमंत) तथा उत्साह रूप (शिशिर) ऋतुओं को नमस्कार है। हे पितरों हमारे पास जो कुछ भी है, वस्त्रादि सहित वह सभी समार्पित करते हैं। आप हमें पुत्र-पुत्रादि से युक्त गृह प्रदान करें। ) पितरों के प्रति समर्पण भाव को प्रदर्शित करने के लिए जल और तिल की श्रद्धांजलि दी जाती है। तिलों का विशेष महत्व है। पितरों के प्रति तर्पण अर्थात् जलदान व पिण्ड दान को समर्पित किया जाता है तथा भोजन द्वारा श्राद्ध दिया जाता है। देव, ऋषि और पितृ ऋण के निवारण के लिए श्राद्ध कर्म है। पूर्वजों के बताये मार्ग पर चलना ही वस्तुतः श्राद्ध कर्म है। तिथि (शुक्ल पक्ष या कृष्ण पक्ष) अनुसार जिस पितृ की मृत्यु जिस तिथि को होती है उसी तिथि को उस पितृ का श्राद्ध कर्म भी होता है। सर्वप्रथम यम के प्रतीक के रूप में कौआ कुत्ते और गाय के लिए भोजन का अंश निकाला जाता है। फिर किसी पात्र में दूध, जल, तिल और पुष्प लेकर कुश और काले तिलों के साथ तीन बार तर्पण किया जाता है। ऊं पितृ देवताभ्यो नमः मंत्र का उच्चारण किया जाता है। बांये हाथ में जल का पात्र लेकर दायें हाथ के अंगुठे से पृथ्वी की तरफ करते हुए उस पर जल डालते हुए तर्पण किया जाता है। वास्त्रादि भी दान किया जा सकता है। श्राद्ध पक्ष में जल और तिल द्वारा तर्पण किया जाता है। तिल को देवान्न भी कहा जाता है। ऐसा माना जाता है इससे पितरों की तृप्ति होती है। यह भी माना गया है कि पितृ लोक में जल ही जल है। इस कारण भी हमारे पितृ जल से ही तृप्त होते हैं। ऊर्जा वहन्तीरमृतं द्यृतं पयः कीलालं परिसु्रतम। स्वधा स्थ तर्ययत में पितृन्।। यजुर्वेद।।2।।34।। (हे जल समूह! अन्न, धृत, दूध, तथा फूलों-फलों में आप रस रूप में विद्यमान है। अतः अमृत के समान सेवनीय तथा धारक शक्ति बढ़ाने वाले हैं, इसलिए हमारे पितृगणों को तृप्त करें।)

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