भारतीयता लाना हो शिक्षा का उद्देश्य - TOURIST SANDESH

Breaking

गुरुवार, 15 अक्तूबर 2020

भारतीयता लाना हो शिक्षा का उद्देश्य

भारतीयता लाना हो शिक्षा का उद्देश्य

सुभाष चन्द्र नौटियाल

ज्ञान, शिक्षा, और विद्या मौटेतौर पर समानार्थी लगते हैं परन्तु इन तीनों शब्दों में अर्थ भिन्नता है। पंच महाभूतो ं से बने हुए इस शरीर को मूलतः पंच प्राकृतिक स्थितियों का ज्ञान स्वतः ही रहता है। रूप, रस, गन्ध, शब्द, स्पर्श का ज्ञान शरीर में उपस्थित पंच ज्ञानेन्द्रियों से सम्भव है। यह ज्ञान प्रत्येक जीवधारी में  सहजता से उपलब्ध होने के कारण सहज ज्ञान कहलाता है। शिक्षा संस्कारों की निधि है। मानव अपने माता-पिता, समाज तथा आस-पास अन्य जनों से आचार-विचार तथा व्यवहार जनित संस्कारों के रूप में जो कुछ ग्रहण करता है वह ज्ञान शिक्षा कहलाता है। ऐसी संस्कार जनित शिक्षा को देश, काल और परिस्थितियां भी प्रभावित करती हैं। यह आवश्यक नहीं है कि, माता-पिता अपनी भावी पीढ़ी को जो शिक्षा देना चहाते हैं, बच्चे उसी शिक्षा को ग्रहण करते हैं। आने वाली पीढ़ी उन संस्कारों को तेजी से ग्रहण करती है जो परिस्थितिवश उनके सामने घटित होता है। इसीलिए संस्कारजनित शिक्षा में समय-समय पर आमूल-चूक परिवर्तन भी देखे गये हैं परन्तु मानव के मूल संस्कारों के क्षरण में कई पीढ़ियां गुजर जाती हैं। शिक्षा मानसिक, वाचिक, वैचारिक तथा व्यहारिक होती है। पशु-पक्षियों की भी अपनी सांस्कृतिक विरासत होती है जो कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होती है। विद्या विशिष्ठ ज्ञान का प्राय है। जो कि आजीविका और समाज के विकास के लिए ग्रहण की जाती है। किसी विशिष्ठ ज्ञान में दक्षता हासिल करना ही विद्या ग्रहण करने का मूल उद्देश्य होता है। विद्या ज्ञान में दक्षता, विशिष्ठ ज्ञान मेंं परिपूर्णता का सूचक है अतः सम्बन्धित विद्या का निरन्तर अभ्यास ही व्यक्ति को दक्ष बना सकता है। विद्या अर्जन करने वाला व्यक्ति विद्यार्थी कहलाता है। प्राचीन भारत में गुरूकुल शिक्षा पद्धति थी। गुरूकुलों में विद्याध्ययन हेतु विद्यार्थी आते थे। वर्त्तमान स्कूली शिक्षा को  प्राचीन काल की विद्या का स्वरूप माना जा सकता है। भले ही समय के साथ उसमें अनेक परिवर्तन भी हुए हैं। विद्यालय, विद्यापीठ तथा विश्वविद्यालय विद्याध्ययन के केन्द्र होते थे।  गुरूकुलों में ही समस्त विद्याओं का अभ्यास कराया जाता था। प्राचीन भारत में लोक शिक्षा भी विद्या की श्रेणी में ही आती थी। जैसे गणित तथा ज्योतिष विद्या, रसायन विद्या, भौतिक विद्या, शस्त्रविद्या, मोहनी विद्या, तन्त्र-मन्त्र विद्या आदि। लोक संस्कारों से सुसज्जित शिक्षा तथा विशिष्ठ ज्ञान में प्रवीणता हासिल करना ही भारत में स्थापित गुरूकुलों का मूल उद्देश्य था। ऐसा गुणी मानव ही सम्पूर्ण मानव कहलाता था तथा उसे अपने भारतीय होने पर गर्व की अनुभूति होती थी। वास्तव विद्या से सम्पन्न, सुसंस्कारजनित मानव होना ही भारतीयता है।


  भारत, भारती तथा भारतीय होने से मानवीय गुणों से परिपूर्ण मानव की अभिव्यक्ति होती है। शिक्षा से संस्कारित मानवीय गुणों से परिपूर्ण, किसी विशिष्ठ ज्ञान में महारत हासिल करने वाला मानव ही भारतीय कहलाता है। अपनी इसी विशिष्ठता के कारण भारत को सदियों से विश्व गुरू कहा जाता है। भारत का आधिकालीन इतिहास संस्कारजनित शिक्षा, किसी विशिष्ठ ज्ञान से सम्पन्नता हासिल करने का रहा है। मानवीय संस्कारों से सुसज्जित तथा किसी विशिष्ठ विधा से परिपूर्ण मानव को भारतीय होने में गर्व की अनुभूति होती है। भारत में वैदिक काल से ही उच्चशिक्षा का प्रसार शुरू हो चुका था। वैदिक काल में विश्व का प्रथम विश्वविद्यालय कण्वाश्रम तथा बाद में तक्षशिला, नालन्दा जैसे उच्चकोटी के विश्वविद्यालय भारत में स्थापित हो चुके थे। ज्ञान में अग्रणी होने के कारण ही भारत को विश्व गुरू की संज्ञा दी जाती रही है। मध्यकालीन भारत में जैसे-जैसे भारत में संस्कारजनित शिक्षा तथा विशिष्ठ ज्ञान की विधा का लोप होता गया वैसे-वैसे भारत राजनैतिक गुलामी की ओर अग्रसर होता गया। शक, हूण, अरबों तथा अंग्रेजों ने न सिर्फ भारत के विशिष्ठ ज्ञान को अपनी भाषा में लिपिबद्ध किया बल्कि भारत की मूल प्रतियों को नष्ट करने का काम भी किया। अक्रान्ताओं द्वारा भारत के प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा जमाने के लिए तरह-तरह से बार-बार आक्रमण किये गये जिसके कारण न सिर्फ संसाधनों की क्षति हुई बल्कि शैक्षिक वातावरण भी प्रदूषित हुआ।

अंग्रेजों के भारत में आने के बाद अंग्रेज शिक्षाविद लार्ड मैकाले ने भारत में शिक्षा के प्रसार के लिए अधोगामी निस्ंपादन सिद्धान्त (कवूदूंतक पिसजतंजपवद जीमवतल) का प्रतिपादन किया। जिसके तहत् भारत के उच्च तथा मध्य आय वर्ग के एक छोटे से हिस्से को इस प्रकार शिक्षित करना था ताकि, एक ऐसा वर्ग तैयार हो सके जो रूप, रंग तथा खून में तो भारतीय हो परन्तु आचार-विचार और व्यवहार में एक अंग्रेज हो ताकि आगे चलकर एक ऐसा वर्ग तैयार हो सके जो कि भारत में स्थायी गुलामी का पैरोकार बन सके। अंग्रेजों द्वारा इस प्रकार की शिक्षा पद्धति को जब भारत में लागू किया गया तो इस का परिणाम यह हुआ कि देश में एक ऐसा शिक्षित वर्ग तैयार हुआ जो कि, अपने ही देश के रीति-रिवाजों , भाषा, नीति-सिद्धान्तों को हेय दृष्टि से देखने लगा उसे यह लगने लगा कि यही शिक्षा श्रेष्ठ है। अंग्रेजी बोलना तथा भारतीय रीति-रिवाजों की खिल्ली उडाने में वह अपनी शान समझने लगा। अंग्रेजों की चाकरी करते हुए उसे यह महसूस होने लगा कि अंग्रेजी शिक्षा ग्रहण करने के कारण वह आम भारतीयों से श्रेष्ठ है। ऐसा वर्ग अंग्रेजों तथा अंग्रेजी के मोहजाल में इस कदर फंसा कि उसको स्वयं के भारतीय होने पर मनोवैज्ञानिक दबाव महसूस होने लगा, रही-सही कसर अंग्रेजों द्वारा समय-समय पर दिये गये तानो ने पूरी कर दी।  अंग्रेजी शिक्षा से आच्छादित मनोवैज्ञानिक दबाव झेल रहा ऐसा व्यक्ति तन से तो भारतीय था परन्तु मन से वह अंग्रेज हो चुका था। लार्ड मैकाले ने भारत में शिक्षा व्यवस्था के लिए जो अद्योगामी निस्पादन सिद्धान्त दिया था भारत का शिक्षाविद उस के मोहजाल में आज तक इस कदर उलझ चुका कि, उससे पार पाने के लिए आज तक छटपटा रहा है।यदि कहा जाए कि भारत में अभी तक बनी शिक्षा नीतियां मैकाले सिद्धान्त से बहुत अलग नहीं हैं तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 भी उसकी ही प्रतिछाया मात्र ही है।

भारत में ऐसी शिक्षा नीति की आश्यकता है जिसका उद्देश्य भारतीयता लाना हो। देश के भावी नागरिकांं  को गुणात्मक शिक्षा उपलब्ध कराना सरकार का मूल कर्त्तव्य है। अमीरी-गरीबी, धर्म, ऊंची-नीची जातिगत व्यवस्था से मुक्त भेदभावरहित समान शिक्षा का अधिकार प्रत्येक भारतीय का मौलिक अधिकार है। शिक्षा व्यवस्था का पूर्ण दायित्व सरकार के हाथों में होना चाहिए। शिक्षा का निजीकरण का मायने शिक्षा का विनास करना है ऐसी शिक्षा का उद्देश्य सिर्फ लाभ कमाना होता है, केवल लाभ के उद्देश्य से ली गयी शिक्षा राष्ट्र के प्रति जिम्मेदार नागरिक नहीं बना सकती है। चारित्रिक और नैतिकता विहीन ऐसी शिक्षा मानवता रहित ही होती है।


       अंग्रेजी शासनकाल में अंग्रेजों ने न केवल हमारे अर्थशास्त्र, लघु एवं कुटीर उद्योगों को समाप्त किया बल्कि पूरे भारतीय समाज के अर्थतंत्र को नष्ट कर डाला। अंग्रेजी शासनकाल में हमारा सांस्कृतिक, साहित्यिक, नैतिक तथा अध्यात्मिक विखंडन भी हुआ। कुव्यवस्थाओं को जबरन थोपा गया जिसके कारण हम अपना भारतपन ही भूल गये। स्वतंत्रता के बाद शिक्षा का मूल उद्देश्य भारतीयता को पुनः स्थापित करना होना चाहिए परन्तु दुर्भाग्य से ऐसा संभव न हो सका। हम अंग्रेजों द्वारा स्थापित शिक्षा व्यवस्था के दलदल में फंसते चले गये तथा अंग्रेजी शिक्षा से आच्छादित यहां के कुछ बड़े घरानों के लोग भारत के भाग्य विधाता बन गये। आम भारतीय इन घरानों का चाकर बन कर रह गया। शिक्षा व्यक्ति को स्व का ज्ञान कराते हुए तथा पराधीनता से मुक्त करती है परन्तु ऐसी शिक्षा व्यवस्था को भारत में लागू करना अभी शेष है।

भारत सरकार द्वारा लायी जा रही राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 भी मैकाले नीति से मुक्त नहीं हो पायी है। कहने का तो 34 साल बाद नई शिक्षा नीति का ढोल पीटा जा रहा है परन्तु यह शिक्षा नीति अंग्रेजी शिक्षा नीति से भिन्न नहीं है बल्कि शिक्षा को नये सिरे से साहुकारों की बपौती बनाने की कोशिश मात्र है। वास्तव में यदि सीधी और सरल भाषा में कहा जाए तो नई शिक्षा नीति भारतीय शिक्षा व्यवस्था को देशी-विदेशी शिक्षा साहूकारों के यहां गिरवी रखने की योजना मात्र है। ऐसी शिक्षा नीति पर पुनः विचार करने की आवश्यकता है ताकि आने वाली भावी पीढ़ी के प्रत्येक नागरिक को विशिष्ठ ज्ञान से सम्पन्न संस्कारजनित शिक्षा आसानी से उपलब्ध हो सके। प्रत्येक भारतवासी को अपने भारतीय होने पर गर्व का अनुभव हो सके तथा भारत फिर से विश्व गुरू बन सके इसके लिए गम्भीर प्रयास किये जाने की आवश्यकता है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें